Thursday, 29 September 2011

सत्य

कल की आकांक्षा 
कल की सुरक्षा 
इंतजाम व्यवस्था 
कभी पूरी न होगी 
हम पूरे हो जाएंगे
हिसाब लगा रहे हैं 
माँ बाप, बच्चों का
पति या पत्नी का 
परिवार समाज का 
देश विदेश का 
छोड़ो फ़िक्र 
यह जीवन बहुमूल्य है
ऐसे मत गंवा दो 
रूपांतरित करो
गुणवत्ता दो 
भगवत्ता दो
असीम की खोज में 
सीमाएं छोड़ दो
हम नदी की धार हैं
बंधे तालाब नहीं 
घर हमसे है
हम घर से नहीं
भोग छोड़ना है
छोड़ सकते हैं
पकड़ा हमने है
तो छोड़ भी हम ही सकते हैं 
पकड़ने से कुछ न पाया
तो छोड़ने से न गवायेंगे 
सुख दुःख तो हमारी 
दृष्टि में ही समाया है
महावाक्य है
प्रबुद्ध बनो
ज्ञान प्राप्ति का रास्ता खोजो
संचेतना का पाठ पढो 
जीवन क्षणभंगुर है 
इसलिए उठो जागो चल पड़ो
तन से नहीं मन से
अभी इसी वक्त 
क्योंकि कल कभी नहीं आता 
जन्मते करोड़ों हैं 
जीता कोई एकाध 
जीवन का सार यही 
शास्वत सत्य है


बेटी

शादी के लड्डू 
जन्मों का बंधन 
ससुराल का स्वप्निल सुख 
जड़ से उखड़ने का दर्द 
बचपन की यादें 
ज़िद कर मचलना 
रूठना मनाना सब कुछ 
इन सब के बीच 
बड़ी मुश्किल से 
मायके जाने केलिए 
मिली एक दिन की अनुमति 
रास्ते भर सोचती रही
माँ के आँचल में छुप
ढेर सी बातें करुँगी
जो बीती ससुराल में
सब कुछ कहूँगी
हर पल का हाल
ख़ुशी और दुःख सब कुछ बताउंगी
माँ से कुछ भी न छुपाउंगी
कैसे एक ही रात में कली से फूल बनी 
जिम्मेदारियां जो अब तक आप निभाती थीं
मैं भी निभाने लगी
घर बदला, रीति बदली 
प्रीति बदली, लोग बदले
मैं भी बदली
सजधज कर आतुर होकर आई 
माँ के आँचल में छुपी 
तो सब कुछ भूल गई 
दिन तो पल में बीत गया
वापस आ गई
अनकही बातें और मायूस मन लेकर
अब मन करता है 
चिड़िया सी बन जाऊं 
पंख निकल आएं  
उड़ कर आँगन के दाने मैं चुग लूँ 
जो मेरे जाने के बाद 
बेचैन मन से माँ ने चिड़ियों को डाले थे |

Monday, 26 September 2011

अभिशप्त ख़ूबसूरती

सब्र का बांध टूटा 
अर्धविक्षिप्त  सी हो गई
सोचती हूँ
मेरा  यही चेहरा
माँ चाँद से तुलना करती थी
आँचल में छुपाती थी
नज़र उतारती थी
दुलराती इठलाती थी
बलैया लेती थी
गर्व से भरी हुई 
फूली नहीं समाती थी
खूबसूरत दिखूँ
जाने क्या क्या लगाती थी
पर आज
इसी खूबसूरती के कारण
लोग छेड़ते हैं
आहें भरते हैं 
मुझसे चिढ़ते हैं
ताने मारते हैं
प्यार को तरसती हूँ
शक भरी नज़रों से दो चार होती हूँ
कमाकर लाती हूँ
मार भी खाती हूँ
नफरत और दहशत का जीवन बिताती हूँ
रोज़ रोज़ मरती हूँ 
मरमर कर जीती हूँ
ख़ूबसूरती की सजा
हर पल भोगती हूँ

अद्वय

मैं अद्वय हूँ
पूंछने दो सवाल दर सवाल 
लम्हा लम्हा मुट्ठी में हो
यह माँ ही तो बतायेगी
तन से ही नहीं 
मन से भी सुन्दर बनायेगी
जीना सीखना है
दरिंदों से लड़ना है
चाटुकारों की मंडी में 
चन्दन सम रहना है
लोग क्या कहेंगे
इससे न डरना है
आत्मविश्वास से परिपूर्ण 
भविष्य संवारना है
कमज़ोर नींव नहीं 
मज़बूत बनना है
इसलिए पूंछने दो
सवाल दर सवाल
क्योंकि मैं अद्वय हूँ

अन्तर्द्वन्द

मस्तिष्क में कुछ प्रश्न झकझोरते हैं 
लिखे जाते हैं उनके उत्तर
उनसे उठे कुछ समाधान
हर समय दौड़ने से क्या होगा 
कितना भयानक है परिवर्तन का काल
कितना अन्तर्द्वन्द
समस्याओं का समाधान
लेकिन जब मन थकता है
तभी मौन होता है
जग की परम्परा है
मीठे फल खाने की
प्रकृति का सिद्धांत भिन्न है
सुख दुःख के रस साथ निभाने की
जीवन की आपाधापी 
मृग तृष्णा सी है मजबूर 
मन पंछी होता है व्याकुल 
क्या रातें सिंदूरी होंगी 
करुणा सिक्त सिन्धुरस में भी
अन्तर्मन हिलता है 
फिर मस्तिष्क में कुछ प्रश्न झकझोरते हैं 
लिखे जाते हैं उनके उत्तर
क्रम अनवरन चलता है
कुछ प्रश्न कुछ उत्तर  

Sunday, 25 September 2011

चेतना

मैं चेतना हूँ
मैं कौन
आत्मा की आवाज़
जो अब तक जीवित है
नाज़ुक कली हूँ
सुन्दर सलोनी सी
सागर में लहर हूँ 
सीपी में मोती सी
मैं चेतना हूँ
अगणित पहेली हूँ
बिलकुल अकेली सी
निर्बल का सम्बल हूँ
भीड़ में खोई सी 
मैं चेतना हूँ
हँसता हुआ बचपन हूँ
ओस की शबनम सी
खुशियाँ लुटाती हूँ 
जादू की झप्पी सी
मैं चेतना हूँ

माँ

माँ का मतलब है 
वृक्ष पर छाल की तरह चिपकी हुई
अपनों से दूर होने की त्रासदी झेलने वाली 
टुकड़े टुकड़े होकर भी रक्षा करने को आतुर
उसका अपना कोई नहीं
दर्द से निकली चीख को नाटक समझा जाये
रहे न रहे कोई फर्क नहीं
मेरे जन्म के दिन मेरी माँ मर गई
मुझे बचाकर खुद कुर्बान हो गई 
मुझे आँख भर कर देख भी न सकी
आँचल में छुपा न सकी
प्यार से दुलरा न सकी
नज़र का ढिठोना लगा न सकी
मिट्टी खाने पर डांट न सकी
उंगली थाम घुमा न सकी 
शायद इसीलिए
मुझे अपने आस पास नज़र आती है
हर जगह हर कदम मेरे साथ रहती है
आत्मविश्वास, संघर्षशीलता, स्वाभिमान और बलिदान 
जो मुझे विरासत में दिए
उसे थाम मैं सफलता की सीढ़ी चढ़ी जा रही हूँ
अपनी माँ की तरह निःस्वार्थ धरती माँ की सेवा करती जा रही हूँ