Saturday 31 December 2011

स्वयं मुस्कराती हूँ

फर्क नहीं पड़ता अँधेरी रातों का
पति की डांट और सास के तानों का
देवर के उलाहनों और ननद के धमकाने का
पडोसी के व्यंग और दासी सी परिस्थिति का
चाटुकारों की बस्ती है मोल नहीं भावनाओं का
प्रयास मिथ्या है संतुष्ट कर पाने का
अब तो आदत हो गयी है डर नहीं लगता
जुर्म सहना भी जुर्म करने से कम नहीं होता
मैं गाय नहीं हूँ जो खूंटे से ही बंधी रहूँ
अपने ही बनाये मकडजाल में फंसी रहूँ
अब छुपाती नहीं दर्द भरे आंसू न शर्माती हूँ
सजती संवरती हूँ खुद को निहारती हूँ
उलझी लटों को रिश्तों सा सुलझाती हूँ
मनाती हूँ उत्सव और स्वयं मुस्कराती हूँ .
नए वर्ष की तरह नयी खुशियों का स्वागत करती हूँ .

धर्मपत्नी

नख शिख सौंदर्य से अलंकृत कल्पना
आँगन में पद चिन्हों से बनी अल्पना
महावर लगे पैरों में पाजेब की झंकार
सम्पूर्ण व्यक्तित्व पर जादू चलाने को तैयार
रात देती है संबल और करती है कर्तव्य
हर युग मैं आई हूँ जीतने तुम्हारा पुरुषत्व
सप्तपदी के वचनों को बखूबी निभाती हूँ
ह्रदय जीत कर ही धर्मपत्नी कहलाती हूँ .

Tuesday 27 December 2011

प्रकाश

अचानक चाँद ढक गया
वायु बड़े वेग से बहने लगी
बादलों के दल भाग दौड़ करने लगे
अन्धकार पुंजीभूत हो उठा
बिजली आकाश को चीरने लगी
सम्पूर्ण प्रथ्वी कांप उठी
संसार भयक्रांत हो गया
तभी चेतनाओं ने करवट बदली
शब्द अमरत्व की राह पर चल पड़े
जन्म सार्थक हुआ हम समझ गए
ईश्वर की लीला भी अपरम्पार है
कथाओं में आवागमन की महिमा का सार है
सेज नहीं सुख की जीवन संग्राम है
दुःख का अंतर्मन से ही सरोकार है
सिसकती मानवता में संभावनाओं का सागर है
प्रफुल्लित मन में अब सिर्फ प्रकाश की गागर है .

Saturday 24 December 2011

प्रकाश

अध्यात्म और योग मनीषी की तरह
भीतर की दुनिया में प्रवेश किया
लोक परलोक से नाता तोड़ लिया
अनुभूति पूर्ण एकक्षण का अहसास
न रहा किसी पीड़ा का आभास
अन्तरंग के प्रकाश में नहाती
शांति की दुनिया में गोते खाती
ब्रम्ह शक्ति का स्पर्श
पूर्ण रूप से समाहित होता द्रश्य
प्रकाश ही प्रकाश
तभी आ गयी स्वास
माया का आभास \

आभास

तस्वीर धुंधली है
प्रेम से चित्त्रित है
लाखों बार जन्मे
प्रेम न छोड़ा
फासला बड़ा है
प्यार सच्चा है
संकल्प किया है
निभाना न छोड़ा
इस जन्म न मिले
कोई बात नहीं
हवा की तरह
वास तुम्हारा है
दिलो दिमाग में
आभास तुम्हारा है 

Friday 23 December 2011

मेरा जन्म

मेरा जन्म
चुनौतियों का जन्म
चुनौतियाँ भी डर गईं
मैंने सोचा मुझे देख कर भाग गईं
मेरी सोच गलत हो गई
चुनौतियाँ असीमित हो गईं
मुझे जीने का मार्ग दिखा गईं
विचारों को नई दिशा दे गईं
चुभन की जगह शांति तलाशनी है
चुनौतियों को मधुर गीत बनाना है
पर्वत मालाओं की तरह ठहरनाहै
वृक्ष की तरह झुक जाना है
अस्तित्व बचाना है तो
स्वीकार करना है
अंधकार को भी
वर्ष के अंत की तरह
हर्षोल्लास से स्वागत करना है
जन्म दिन और नए वर्ष का .

माँ

सुबह की शुरुआत है
टूटी हुई खाट है
जूठे बर्तन धोती हूँ
सब कुछ सहती हूँ
दूसरों को खिलाती हूँ
स्वयं अत्रप्त हूँ
थककर चूर हूँ
बिस्तर निहारती हूँ
शराबी पति से
आँखें चुराती हूँ
फिर भी एक आस है
जीवित होने का अहसास
मैं भी अब माँ हूँ
मुझे लेनी है साँस
बुझती हुई प्यास
अपने हिस्से की भूख
सूरज की नर्म धूप
चंदा की छाया
थोड़ी सी माया
सितारों की चमक
पूरी दुनिया का सुख

Wednesday 21 December 2011

प्रफुल्लित मन

तरंगित संगीत
उमड़ती लहरें
लहरों का गर्जन
बल खाती पवन
नर्म सुनहरी धुप
सजे संवरे उंट
पीठ पर पर्यटक
दुकान बने युवक
सीप और शंख
मछलियों के झुण्ड
आनंदित करता स्नान
बच्चों की मनमोहक मुस्कान
प्रफुल्लित मन समुद्र दर्शन

बीते हुए पल

चारो धाम घूमने
पहली बार निकले
लोग मिले और बिछड़े
अनगिनत भाव उमड़े
ऊपर बर्फ उज्वल
अन्दर गर्म जल
कहीं राह पतली
कहीं पर्वत कहीं खाई
प्रक्रति का खेल
कहीं पानी कहीं तेल
चारो तरफ समुद्र
पानी का दरिद्र
नारियल पानी
जनता दीवानी
जहाँ खिली धूप
बदली घिर आई
आनन् फानन में
धरती भिगोई
फूलों की क्यारियां
रस्सी में सूखती मछलियाँ
जो पल बीते
यादों में आये
बिछड़े जो मित्र
फिर न मिल पाए
कभी गमगीन हुए
कभी हर्षाये
यात्रा में हमने
पल जो बिताये .

Tuesday 20 December 2011

जी चाहता है

बचपन में लौटने का
फूलों संग खिलने का
अठखेली करने का
छुट्टी मनाने का
चिड़िया उड़ाने का
मासूमियत ओढ़ने का
धरती भिगोने का
चाँद पर जाने का
तारों से खेलने का
परियों संग उड़ने का
कहानियां सुनने का
भरोसा करने का
अम्मा से मिलाने का
जी चाहता है .

Sunday 18 December 2011

एक पल का वक्त

म्रत्यु कहें या काल
स्वागत है तुम्हारा
अधिक इंतजार अच्छा नहीं
अब तो आ जाओ
सूत्रधार हो परमात्मा के
अधीर हूँ मिलनेमिलने को
तन और मन दोनों से
जिस राह पर ले चलो
उंगली थाम चलना है
जबरन न ले जाना
वचन देती हूँ
स्वयं चलूंगी
बस एक प्रार्थना है
वक्त देना थोडा सा
उनसे मिलने का
थामा था दामन जिनका
उन्हें निहारने का
बिदाई लेने का
सांसारिक लिप्सा से मुक्ति का
सिर्फ एक पल का वक्त .

मुक्ति दो

जीवन संग्राम में लड़ते लड़ते
चुनौतियों को सहते सहते
संसार रूपी कुरुछेत्र में
थक गया हूँ
हर गया हूँ
टूट गया हूँ
छत विछत हूँ
लहू लुहान हूँ
तन और मन दोनों से
ढूंढ़ रहा हूँ आपको
कहाँ हो तारणहार
गीता के कृष्ण
मुझे ज्ञान दो
शक्ति दो
मुक्ति दो .

पराया देश

बचपन का सपना सच हो गया
पराये देश जाने का मौका मिल गया
पराया देश जब सांसो में बसने लगा
सांसो को पंख मिल गए
हम उड़ने लगे मन आह्लादित हो गया
स्वछंदता का अहसास खुसी दे गया
पराया देश जब सांसो में बसने लगा
तो सोचा खूब खाओ हरे साग के भाव मांस
इतना सस्ता कहाँ मिलेगा
स्वाद के साथ मौज मस्ती और भोग विलास
पराया देश जब हाड़ मांस में समाया
सुख सुविधाओं ने गुलाम बनाया
तो परेशान हूँ विक्षिप्त हूँ
अचानक अपना वतन याद आने लगा
भूले हुए चेहरों से भी प्यार हो गया
बहुत याद आये माँ की लोरी और पकवान
देश प्रेम में लिखे गए पिता के व्याख्यान
डांटती अध्यापिका और हल्दी घाटीवाला प्रश्न
पटरे वाली कमीज पहने साईकिल का जश्न
दूर के ढोल बड़े सुहाने वाले मुहावरे का सच होता मंचन .

Saturday 17 December 2011

जोड़ियाँ

लोग कहते है
जोड़ियाँ ऊपर बनती है
जन्म जन्मान्तर के संयोग से बनती है
मुझे भी यही लगता था
पर अब तो ऐसा लगता है
जोड़ियाँ जोड़ तोड़ से बनती हैं
जन्म पत्र  मिलानेवाले पंडित से बनती हैं
दहेज़ की सौदेबाजी से बनती हैं
परम्पराओं की आड़ में बनती हैं
लड़का तो घी का लड्डू है
लायक हो या नालायक
बोली लगती है खरीदार तो मिल ही जायेंगे
जो अधिकतम मूल्य चुकाए ले जाये
कीमत लगादी पर ससुराल का न  हो जाय
चिंताग्रस्त हैं मुख मलीन है
जोड़ तोड़ जारी है
डर है पत्नी से साठ गांठ न हो जाये
दुकानदारी चलाने के लिए
दरार डालना जरुरी है
सात जन्म की कौन कहे
इस जन्म का पता नहीं
जोड़ियाँ कब बने कब टूटे
सब नीचे वाले के हाथ है .

Friday 16 December 2011

महूर्त

शुभ मुहूर्त का इंतजार
सज गए बाज़ार
झिलमिलाता कारोबार
स्वप्निल संसार
दूल्हा दुल्हन के साथ
रिश्तेदारों का सामान
बढे कपड़े आभूषण  के दाम
फल मीठा छु रहे आसमान
दर्जी से लेकर हलवाई
ढोल बजा पंडित शहनाई
हर जगह आपाधापी
विवाह स्थल की मारामारी
जगह एक दुल्हन चार
ऐसा है शुभ महूर्त का कारोबार
बिना नाम पढ़े ही घुस गए
पढ़े लिखे गंवार बन गए
दूल्हा दुल्हन देखने की जरुरत नहीं
सिर्फ भोजन दिखता है घडी दिखती है
अगली सुबह की भागमभाग दिखती है
आर्थिक संकट दोनों पक्छों को आया है
इसलिए बिना शगुन आशीर्वाद अधुरा है
आमंत्रण जेब पर भारी है
रिश्ते निभाने की अपनी लाचारी है .

Thursday 15 December 2011

अम्मा

दुबली पतली छरहरी गोरी शायद आज के विज्ञापन जैसी
ऊँचा चौड़ा माथा उस पर बड़ी सी गोल बिंदी लगाती
जो बिल्कुल पूर्णिमा के चाँद की तरह ही चमकती रहती
इसीलिए चबूतरे पर शतरंज खेलते बाबूजी का मन
आपके बुलौवा से वापस आने का इंतजार करता
सान्झ होते होते बोल ही पड़ते तुम्हारी अम्मा नहीं आयीं
देखो क्या हुआ सब लोग चले गए
मैं जानती हूँ बढती उम्र का प्यार शायद ऐसा ही होता है
उम्र की तरह वह भी बढ जाता  है पता नहीं चलता
अचानक बाबूजी ने बिदाई ले ली चिरनिद्रा में सो गए
बस आपके व्यक्तित्व को नया आयाम मिला
शांत सरल निश्छल निर्मल व्यक्तित्व वाली
ईर्षा द्वेष लोभ मोह लोक परलोक सब से परे


एक दिन बोलते बोलते अचानक चुप हो गईं
बैकुंठ चौदस का दिन बैकुंठ सिधार गईं
अब सिर्फ मेरे अन्दर बह रहे लहू के हर कतरे में हो
शायद इसलिए कि मैं भी अब उस उम्र में प्रवेश कर रही हूँ
जहाँ से आपने नश्वर संसार से बिदाई ली सदा सदा के लिए .  

Thursday 8 December 2011

अस्तित्व

समाज सुधारक बने
गलती निकालने का कोई मौका न गंवाते 
शिकायत करना तो खून में रच बस गया 
प्रतिक्रिया देना अहम का हिस्सा बन गया
अपने मुंह मियां मिट्ठू बनने की आदत जो हो गयी
इसीलिए कोई अच्छा दिखता ही नहीं
नहीं जानते तलाश किसकी है 
इन्सान कोई मशीन तो नहीं है
जो कलपुर्जों की तरह बदल दो
समझदारी पर संदेह करते 
जहाँ पहुंचना था वहां न पहुँचते 
बुद्ध महावीर बन पहले खुद में झांको 
उबड़ खाबड़ रास्ते घाटियों पहाड़ियों के पार 
अस्तित्व की झलक है फिर सारा संसार सुनहरा दिखेगा |

Tuesday 6 December 2011

स्त्री

प्रेम का नाम न लो
वह तो एक पीड़ा थी
ह्रदय को सम्हालो
सुख के स्वप्न विलीन हुए                
संदेह का इंद्रजाल ही सच है
कष्ट सहन करने के लिए प्रस्तुत हो जा
प्रतारणा में बड़ा मोह होता है
छोड़ने का मन ही नहीं करता है
मन की उलझन कयूँ
बन्धनों से बाहर आओ
तोड़ दो व्यूह
कुचल दो पैरों से
भाग्य के लेखे को
धूल में लोटने दो
अमंगल का अभिशाप
आत्मविश्वास से परिपूर्ण बनो
स्त्री बनना सहज नहीं है
     

एक बंजारन

गाँव के किनारे बंजारों के डेरे 
जवान और सलोनी लड़की
शराब बनाती सस्ती बेचती 
नौजवानों का शिकार करती
रूप जाल में बंधक बनाती 
आँख मूँद थकान उतारती
हवा धुप उड़ाती चीखती चिल्लाती 
पूरब पश्चिम में भेद नहीं करती
समय रफ़्तार से बढ़ता गया
दिन महीने में बदले महीने साल में
आनेवाले आते जानेवाले चले जाते 
छल का बहिरंग बड़ा सुन्दर होता है
अब वह अकेली नहीं उसके जैसी चार हैं 
उन सबका अपना अलग संसार है |

Sunday 4 December 2011

फुर्सत के क्षण

कमरे के कोने में रखी हुई आराम कुर्सी पर झूलते हुए 
फुर्सत के क्षण अब बड़े अच्छे लगने लगे हैं
मधुर संगीत, गजलें दिल के तार झंकृत करने लगे
फूलों का रंग अधिक चटकीला हो आकर्षित करने लगा 
उनींदे बच्चों के प्यारे चेहरे अब मासूम लगने लगे
सुन्दर सुगढ़ सजे संवरे चेहरे सम्मोहित करने लगे
प्रसन्न मन से मित्रों और सम्बन्धियों संग त्यौहार मनाने लगे
ज़िन्दगी जीने का हर मौका तलाशने की कोशिश करने लगे
कुदरत कोहरे की चादर ओढ़े प्यार से रिश्तों को लपेटने लगी
लताओं वृक्षों और चट्टानों से छाया और सहानुभूति मिलने लगी
फुर्सत के क्षण अब बड़े अच्छे लगने लगे |



Thursday 1 December 2011

मित्र

वह सत्य बयां कर रहा था या प्रशंशा 
पता नहीं चला जानना भी मुश्किल था
मैं उसकी मित्र थी शायद इसीलिये
मुझे दुखी नहीं देख पा रहा था
बात बदलने की कोशिश में पकड़ा गया
मुझे बचाकर खुद दांव पर लग गया बेचारा
मित्रता का फ़र्ज़ निभाने में खुद शहीद हो गया
वह कभी नहीं जान पायेगा मेरा गम 
सच्चा मित्र खोकर कोई चैन से जीता हैं क्या
उसके निराश्रित परिवार को देखकर 
छटपटाता है मन घुटता है दम
जीवन भर का दर्द मुझे मित्र बनकर दे गया
मैं उसकी कुर्बानी को व्यर्थ नहीं गवाऊँगी 
अब कभी किसी को मित्र नहीं बनाऊँगी|

Wednesday 30 November 2011

अनाथ

कहते हैं दुनिया सुन्दर है माता है सृष्टि स्वरूप बनी 
इस रंग बदलती दुनिया में माँ का एक रूप है ऐसा भी
लालच के पर्दे ने देखो माँ से ममता ही छीन लिया
अवांछित बनकर जन्मी थी माँ ने ही मुझको फेंक दिया
जिंदा मुझको कुत्ते नोचें दुर्भाग्य मेरा अब शुरू हुआ
कितने ही चींटे लिपट गये हैं छेद किये देते मुझमें
फुटपाथों पर हूँ पड़ी हुई किस्मत से मत खा गई मैं
इतना मजबूत जिगर देखो मैं फिर भी बच ही जाती हूँ
दिल में पीड़ा के भाव छिपा ऊपर से मैं मुस्काती हूँ
जिसको माँ ने ही त्याग दिया, ईश्वर उसको क्या अपनाता
मरना तो यहाँ हुआ असं पर मरना कितना मुश्किल लगता
माँ ने अनाथ है बना दिया जीने का संबल ढूंढ रही
नश्तर है चुभाये अपनों ने बेगानों से शिकायत न रही|

Sunday 27 November 2011

सावन


सावन का महीना
नदी का यौवन 
गाँव की हद
बांस की जड़ 
मेंढकों की टर्र टर्र 
दिन का दूसरा पहर  
मेघ छंटा आकाश 
नभ पटल पर सूर्य देव
हल्का सा ताप
धूप में नहाई घास
क्लांत धरती की नि:स्वास      
वृक्षों का कम्पन 
सुकोमल पवन
चिकने मृदुल पल्लव 
पक्षियों का कलरव
तभी अचानक देखा
नौका पर मृगनयनी 
गहरी चितवन 
लज्जाशील नेत्र
अप्रतिम सौन्दर्य 
पुलकित मन
सलोना चंचल मुख
मनमोहक मुस्कान
घुंघराली केश राशि   
लम्बी परिपुष्ट
स्वच्छ सबल
अपलक देखता रहा
विचारों में खो गया 
स्तूपाकार बादलों का दल आया
साथ में तूफानी हवा
अतिवृष्टि पानी ही पानी
कहाँ गयी नौका कहाँ मृगनयनी 
नज़रें आज भी ढूँढ़ती हैं
यादों में आती है मृगनयनी 
और सावन का महीना भी| 

Saturday 26 November 2011

माँ

शक्ति और सामर्थ्य हीन 
हड्डियों का ढांचा मास गायब 
कंकाल झुर्रियों के सहारे 
आघातों की मार से बेमौत मरी हुई 
आँखें जा चुकी पर मोह की रोशनी बरकरार
कान बेकार फिर भी सुनते हैं बच्चों के पदचाप 
दुआ मांगते खुले हाथ 
नहीं जानती मांगने से क्या होगा
नियति पर किसी का जोर चला है क्या
कर्मफल का स्वाद तो सबको चखना पड़ेगा
जानकर भी अन्जान ममत्व से लाचार
माँ और कर भी क्या सकती है

Thursday 24 November 2011

पीड़ा

गहरे शान्त अन्तःकरण में
अव्यक्त क्रन्दन ध्वनित हो उठा
सृष्टिकर्ता के सिवा उसे कोई सुन नहीं सका
विचारों का भयंकर झंझावत 
अन्तर्द्वन्द से घबरा गया 
वेदना और अश्रुओं का सम्मिश्रण 
सीप के मोती सम नैनों में समा गया
तीर से घायल हिरणी सा कंठ अवरुद्ध हुआ
मैं कुछ भी बोल सकने में असमर्थ हुआ
माँ गर्भ का कलंक समझ रोती बिसूरती 
उदासीन है मन के भावों को नहीं देखती
संकेतों के नये पल्लव कंपाते हैं
खंजन पक्षी सी मेरी चमकती आँखें 
बिना अनुवाद ही सब कुछ बताती हैं
शब्दहीन एकान्त और मौन आकुलता 
प्रकृति के समान असीम अदभुत परिपूर्णता 
पुंजीभूत अप्रकाशित अपरिहार्य दुखः भार
किसी को नहीं मेरी अव्यक्त पीड़ा का आभास |



Sunday 13 November 2011

आशाएँ

राम और श्रवण से
मेरी तुलना होती
हो गई शादी 
बढ़ गई जिम्मेदारियाँ
आ गई कुछ नयी सवारियाँ
भाई छोटे से बड़े हो गये
क्षमता से अधिक आशा हुई 
सबकी अलग परिभाषा हुई
मज़बूत पैर डगमगाने लगे 
लोग मर्यादा की सीमा लांघने लगे
सबको होने लगी परेशानी 
शुरू होगी खींचातानी 
घर टुकड़े टुकड़े हो गया
मेरा हिस्सा पत्नी के नाम हो गया
सदा राम को आदर्श मन
पत्नी को सीता बनाया
अपने हिस्से का दर्द उसे ही पिलाया 
वो तो विषपान कर नीलकंठ बन गई 
मैं न तो राम बन सका न श्रवण 
परिवार की नज़र में बना 
सिर्फ पत्नी का गुलाम

Friday 11 November 2011

अनुगामिनी

मन बार बार गुनगुना रहा था
अपने ही द्वारा किए गए प्रश्नों से भाग रहा था
ज़िन्दगी क्या है, समस्या क्या है, सपने क्या हैं, 
सवाल बड़े सरल से हैं उत्तर आसान नहीं 
सुबह से रात चौकीदार की सीटी तक
अनुगामिनी बन ज़िम्मेदारी निभाती हूँ
फिर भी तानशाह गुर्राने से बाज नहीं आते 
लताड़ने और दहाड़ने का कोई मौका नहीं गंवाते 
ज़ख्म कुरेदने का तो चलन हो गया है
संवेदनहीन होकर इंसानियत को ही मारते हैं
सुबह की चाय की तरह इसकी तो आदत हो गई है
अपने वास्तविक स्वरुप को नहीं जी पा रही 
नकली मुस्कान का मुखौटा लगाये हूँ
अब तो मुझे लहरों से भी डर लगने लगा है
अपार धैर्य की स्वामिनी माँ दुर्गा 
मुझे अपनी तरह सर्वशक्तिमान बना दो
असीम श्रद्धा और भावुकता से परिपूर्ण 
जीत में विनम्र हार में गरिमामय 
अनुगामिनी, सहगामिनी, सहधर्मिणी | 

गठरी

सांवली सी औरत
गोद में बच्चा 
बड़ी सी गठरी 
विचारों में खोई 
कहाँ खुद जमे कहाँ गठरी
तभी चल दी रेलगाड़ी 
दौड़ते खेत, मकान
नदी, धूप, सडकें इन्सान
अचानक हुई हलचल
आ गया गन्तव्य स्थल
लगा धरती डोल गई 
भूचाल आ गया
यह उसका चेहरा दिखा गया 
सहसा उसे एक विचार कौधा 
नहीं जाना दुबारा नर्क में
रेलगाड़ी चल दी और वह भी
नै चुनौतियों के साथ जीवन जीने 
बिना टिकट थी पर शिकन नहीं
जहाँ तक रेल जायगी वह भी जायगी 
ऐसा अभी अभी उसने सोचा
शांत चित प्रसन्न मुख से 
बच्चे को आगोश में लिया 
खुद सिकुड़ी सिमटी गठरी बन गई |

Saturday 5 November 2011

रिश्ते

दुनियां की रीति है
बेटी पराई है अपनी नहीं हो सकती 
बहू बहू है बेटी नहीं बन सकती 
जमाई देवता है पूजा जाता है
बेटा कर्तव्यों का बोझ लेकर ही आता है
रिश्ते पहचानना है तो
गहरे पैठकर देखो
रिश्ते बनाने वाले खून से बड़ा 
कोई ज्ञानी नहीं होता 
समानता का पाठ पढ़ाता है
अमीर-गरीब, जाति-धर्म
बेटा-बेटी में भेद नहीं करता 
आदि से अंत तक सफर तय करता है
नहीं मानता दुनियाँ  की रीति को
मनमानी करता है
स्वाभिमानी है पर जानता है
जब शरीर ही अपना नहीं
रिश्ते कैसे अपने 
निःस्वार्थ सेवा करता है
अंतिम पल तक साथ निभाता है 
बिना बोले ही सब कुछ बोलता है
रिश्ते की कच्ची डोर वो ही संभालता है
दुनिया की रीति बदलने को आतुर
व्याकुल हो फड़फड़ाता है
रिश्तों की बेदी पर 
अपनी बलि देता है
जानता है खून खून है पानी नहीं है
रिश्ते से बड़ी जिन्दगानी नहीं है|


Friday 4 November 2011

एक दीप

मानव मन
प्रबल प्रमाण पर भी अविश्वास 
मिथ्या आशा को बाहों से चिपकाये 
भ्रान्ति के जाल में बंध व्याकुल होता है
जीवन में न जाने कितना वियोग 
जो विकसित गाँव भी श्मशान दिखाई देता है
अव्यक्त मर्म व्यथा प्रकट करते ही
करुण रस का दृश्य मानो विश्व व्यापी हो गया हो
तभी होता है अमावस की रात्रि में प्रकाश 
एक दीप का प्रकाश
जो मैंने उस रोज़ अंतर्मन में जलाया था
प्रबल प्रमाण पर भी अविश्वास 
परन्तु सत्य
एक दीप का प्रकाश |

सच्चाई

सच्चाई में
मन के आईने में
अपना प्रतिबिंब निहारा 
चौंक गई वह 
आँखों के आगे
अँधेरा छा गया
बड़ी देर तक 
खुद को ढूंढती रही 
अपार धैर्य की स्वामिनी होकर भी खो गई 
मन में आशा की किरण लिये
प्रतीक्षारत निःशब्द खड़ी रही
शायद कोई मेरी मदद करे
मुझे बाहर निकाल ले
बंद करदे झूठ को मेरी जगह 
जहाँ अन्तःकरण की रोशनी में
मैंने अपना कुरूप, झुर्रीदार चेहरे का अंधकार देखा
परन्तु सच तो सच है
उसे स्वीकारना है
जब बचपन नहीं रहा तो जवानी भी न रहेगी 
बुढ़ापा है तो फिर से एक सुन्दर चेहरा मिलेगा
परिवर्तन प्रकृति का नियम है
चक्र तो अनवरत चलता है
यही सच्चाई है |

Wednesday 2 November 2011

प्रतीक्षा

सूखे पत्ते सी देह खड़खड़ाते हुये
किस वक्त जाना पड़े पता नहीं
शून्य में निहारती हूँ
दिन कटते नहीं
रात तारे गिनकर बिताती हूँ
बूढ़ी माई हूँ
आँख की किरकिरी हूँ
नौकर से बद्तर ज़िन्दगी बिताती हूँ
भूखों मरती हूँ, पानी को तरसती हूँ
अँधेरी कोठरी में गर्मी से सड़ती हूँ 
फिर भी इन दिनों 
जाने क्या हुआ हमको 
बंदगी भूल बैठी 
तुम्हारी याद जो आती है
तन की सुधि  नहीं 
आतुर हूँ मिलने को 
जो अरमान इस देह से न पूरे हुए
उन सब को जीना है
इसीलिए जाने का कोई गम नहीं 
अगले जन्म आपसे जो मिलना है|


Sunday 30 October 2011

अरमान

उम्र बढती रही
गंभीरता आती गई 
आदर्शों और मर्यादाओं  में बंधी मैं
हँसना ही भूल गई 
परिवार को ही  दुनियां  समझ 
गृहस्थी में ऐसी डूबी 
बचपन ही भूल गई 
अपनी खुशियाँ देकर
सबकी खुशियाँ खरीदती रही
खुली आँखों से 
सपने सजाती रही 
मुझे पता है
उम्र के अगले पड़ाव पर
मेरे लिये सिर्फ आलोचनाएं हैं
मुझे जिन्दा दफ़न करने की
सिर्फ योजनाएं हैं
मेरी दुनिया इतनी बोझिल न बने
जहाँ हकीकत से हर पल दो चार होना पड़े
मुझे न इच्छाएं दबाने की ज़रुरत है
न खुशियाँ कुर्बान करने की
अरमानों की चादर को खुद ही बुनना है
आत्मा को मार कर
किसी केलिए नहीं मरना है
उम्र की तरह अपने हौसले भी बढ़ाने हैं
जीना है जिन्दादिली से 
समाज को नई राह दिखाना है|

Saturday 29 October 2011

हंसी

चुटकुले सुनते हैं
उनपर हँसते हैं
यहाँ त्रासदी भी हंसी है 
और हंसी भी त्रासदी 
मानवीय भावनाओं की
किस्में अधिक हैं 
स्पन्दन करता विषय कम 
भावनात्मक सूखे को आमंत्रित किया 
बचपन दहशत की शाम में जिया 
बड़ा खौफ झेल चुकी 
छोटे डर बौने पड़े 
बिना डर जीने की 
कला खूब सीख गयी 
बाढ़, तूफ़ान, अकाल, बम 
किसी का पता नहीं 
कैसे जीते हैं कैसे मरते हैं
मैं ही नहीं मेरे जैसे कितने ही हैं
जिनकी आँखों में आंसू का अकाल पड़ा 
जीवन एक राह नहीं 
यह तो दोराहा है
यहाँ कोई छांव नहीं 
चिलचिलाती धूप है 
ऊपर से जीते हैं
अन्दर से मरते हैं 
अब तो चुटकुले देख कर भी हँसते हैं 
हँसते हँसते हर गम सहते हैं
सहते सहते खुद चुटकुले बन गये
लोग हँसते हैं
उन्हें देखकर हम भी हँसते हैं|

मन

मन तो मेरा है पतंग सा क्षितिज को छूने चला था 
पवन की गति से भी आगे, गगन में इतरा रहा था |
उड़ चला तो याद न थी कभी बंधन में बंधा था
बंधनों की छटपटाहट, चुभे शूलों को सहा था |
मैं तो भूला ही रहा मैं डोर कच्ची से बंधा था
कट गया तो फिर तड़पकर, असह्य पीड़ा को सहा था|
डोर से बंधकर ही तो मैं आसमां में उड़ सका था
जब गया मन शून्य में आज़ाद पंछी सा हंसा था |  

Sunday 23 October 2011

मन

अम्मां की गुड़िया
पापा की बिटिया हूँ
दादी की परी
दादू की दुलारी हूँ
निपट अनाड़ी
जादू की पिटारी हूँ
बचपन बुलाता है
दौड़ी चली जाती हूँ
मन करता है
आम के बागों में 
कोयल सी कूकूँ
बादल की छांव में 
मोर बन नाचूँ
सरसों के खेतों में
बसंत बहार बनूँ
प्रेम के समुद्र से  
बादल बनाऊँ
संपूर्ण पृथ्वी पर 
नेह बरसाऊँ 


विजय श्री

लोग कहते हैं 
मैं विजय श्री हूँ
उन्हें लगता है 
मेरी दुनियां  चमन सी है
पर कोई मेरे ह्रदय में झांककर देखे
मेरी मुस्काने की अदा में
एक चुभन सी है
खुश होकर जी रही
यह मेरा साहस है
वर्ना मर मर कर जीना 
आसान नहीं है
खोखली हंसी का लबादा ओढ़े 
परिवार का ताना बाना बुनती हूँ
भाग्य को कोसने की ज़रुरत नहीं 
जो चाहती हूँ वो मेरे पास है
अचानक अपने आसपास 
झांककर देखा
शराब में धुत
बेसुध पड़ा आदमी
कंकाल बनी औरत 
बिलखते बच्चे 
खाली डिब्बे 
चूल्हे पर उबलते आलू
पास में बजबजाती नाली
लोटते कुत्ते और सुअर
तो सचमुच ऐसा लगा 
लोग सच ही कहते हैं
मैं ही विजय श्री हूँ
भाग्य श्री भी मैं ही हूँ

Tuesday 18 October 2011

क्षितिज

क्षितिज अनन्त है 
अखण्ड और महान है 
वह तो आसमान है
बादलों के पार है
धरती मिलन चाहे 
पर्वत प्रयास रत 
सागर मचल रहा 
पक्षी उड़ान भरें 
कोई न छू पाया 
शून्य से भी पार क्षितिज 
आत्मसम्मान क्षितिज 
मेरा स्वाभिमान क्षितिज

झरोखा

हरिण शिशु के समान बंधनभीरु  
स्वप्निल संसार 
पूर्णिमा का चाँद 
श्रावण की वृष्टिधरा
मेघ गर्जते पर्वत 
मेढकों का टर्र टर्र कलरव 
शाख पर गाती चिड़िया 
गुंजन करते भौरे 
निस्तब्ध दोपहरी 
दूर कहीं चील की पुकार 
गहन रात्रि का अन्धकार 
श्रंगालों का चीत्कार 
ढालू हरा मैदान 
पानी भरे खेत 
रम्भाती गाय 
पूंछ उढाये बछड़े 
ऊँचा छप्पर 
संकरे रास्ते 
खूबसूरत दोस्त
सिकड़ी का खेल 
गुडिया की शादी 
डांटती पड़ोसन दादी 
गूंगी की मर्म वेदना 
खिन्नचित्त पढाई करना
रामलीला का मंचन 
नौटंकी का नर्तन 
त्योहारों की दस्तक 
दीपों की जगमग 
फुलझड़ियों की चमक
मिठाई की महक
होली के रंग 
मस्ती और भंग 
शादी की रात
सुखों की बरसात 
बाल लीला से ओतप्रोत 
जुड़वा बच्चों की मौत 
घाटे का व्यापार
नया कारोबार 
कल्पना प्रवण प्रवृत्ति 
ईश्वर का वरद हस्त 
दिया और बाती
पोती और नाती 
पिता समान भाई 
राखी बंधी कलाई 
रेशमी फ्राक में छोटी सी मैं 
सारी वो यादें 
अनकही बातें 
मगर अब तो
शहर याद हैं 
गाँव की गलियां भूली 
कितनों के नाम भूल चुकी   
शायद चेहरे भी भूल जायें
जीवित हैं या मृत पता नहीं
जीवन में फिर मुलाकात होगी या नहीं
मेरे अवचेतन मन पर
जो निशान अंकित हैं 
वो कभी मिट न पायेंगे 
वर्तमान में जीती हूँ 
कभी कभी अतीत का झरोखा 
खोल कर झांक लेती हूँ 
जिनमे ये लम्हे उम्रकैद हैं 



Monday 17 October 2011

आत्मा

शांत आत्मा बन 
मैंने सब देखा 
भले बुरे अनुभव किये 
गिरने की पीड़ा सही
ऊँचा उढने की ख़ुशी 
जो और जितना मिला उसे स्वीकारा
नहीं मिला तो संतोष 
हर घटना से पाठ पढ़ा 
जीवन की धूप में खुद को पकाया
पतझड़ में मधुमास ढूंढा
संसय में विश्वास 
अचानक चाँद ढक गया
वायु वेग से बहने लगी 
मेघ के पीछे मेघ दौड़ने लगे
अंधकार पुंजीभूत हो उठा 
पृथ्वी कांप उठी 
बिजली आकाश को चीरने लगी
तभी हुआ निर्वाण का आभास 
परमात्मा का प्रकाश 
अंतिम स्वास 

Thursday 29 September 2011

सत्य

कल की आकांक्षा 
कल की सुरक्षा 
इंतजाम व्यवस्था 
कभी पूरी न होगी 
हम पूरे हो जाएंगे
हिसाब लगा रहे हैं 
माँ बाप, बच्चों का
पति या पत्नी का 
परिवार समाज का 
देश विदेश का 
छोड़ो फ़िक्र 
यह जीवन बहुमूल्य है
ऐसे मत गंवा दो 
रूपांतरित करो
गुणवत्ता दो 
भगवत्ता दो
असीम की खोज में 
सीमाएं छोड़ दो
हम नदी की धार हैं
बंधे तालाब नहीं 
घर हमसे है
हम घर से नहीं
भोग छोड़ना है
छोड़ सकते हैं
पकड़ा हमने है
तो छोड़ भी हम ही सकते हैं 
पकड़ने से कुछ न पाया
तो छोड़ने से न गवायेंगे 
सुख दुःख तो हमारी 
दृष्टि में ही समाया है
महावाक्य है
प्रबुद्ध बनो
ज्ञान प्राप्ति का रास्ता खोजो
संचेतना का पाठ पढो 
जीवन क्षणभंगुर है 
इसलिए उठो जागो चल पड़ो
तन से नहीं मन से
अभी इसी वक्त 
क्योंकि कल कभी नहीं आता 
जन्मते करोड़ों हैं 
जीता कोई एकाध 
जीवन का सार यही 
शास्वत सत्य है


बेटी

शादी के लड्डू 
जन्मों का बंधन 
ससुराल का स्वप्निल सुख 
जड़ से उखड़ने का दर्द 
बचपन की यादें 
ज़िद कर मचलना 
रूठना मनाना सब कुछ 
इन सब के बीच 
बड़ी मुश्किल से 
मायके जाने केलिए 
मिली एक दिन की अनुमति 
रास्ते भर सोचती रही
माँ के आँचल में छुप
ढेर सी बातें करुँगी
जो बीती ससुराल में
सब कुछ कहूँगी
हर पल का हाल
ख़ुशी और दुःख सब कुछ बताउंगी
माँ से कुछ भी न छुपाउंगी
कैसे एक ही रात में कली से फूल बनी 
जिम्मेदारियां जो अब तक आप निभाती थीं
मैं भी निभाने लगी
घर बदला, रीति बदली 
प्रीति बदली, लोग बदले
मैं भी बदली
सजधज कर आतुर होकर आई 
माँ के आँचल में छुपी 
तो सब कुछ भूल गई 
दिन तो पल में बीत गया
वापस आ गई
अनकही बातें और मायूस मन लेकर
अब मन करता है 
चिड़िया सी बन जाऊं 
पंख निकल आएं  
उड़ कर आँगन के दाने मैं चुग लूँ 
जो मेरे जाने के बाद 
बेचैन मन से माँ ने चिड़ियों को डाले थे |

Monday 26 September 2011

अभिशप्त ख़ूबसूरती

सब्र का बांध टूटा 
अर्धविक्षिप्त  सी हो गई
सोचती हूँ
मेरा  यही चेहरा
माँ चाँद से तुलना करती थी
आँचल में छुपाती थी
नज़र उतारती थी
दुलराती इठलाती थी
बलैया लेती थी
गर्व से भरी हुई 
फूली नहीं समाती थी
खूबसूरत दिखूँ
जाने क्या क्या लगाती थी
पर आज
इसी खूबसूरती के कारण
लोग छेड़ते हैं
आहें भरते हैं 
मुझसे चिढ़ते हैं
ताने मारते हैं
प्यार को तरसती हूँ
शक भरी नज़रों से दो चार होती हूँ
कमाकर लाती हूँ
मार भी खाती हूँ
नफरत और दहशत का जीवन बिताती हूँ
रोज़ रोज़ मरती हूँ 
मरमर कर जीती हूँ
ख़ूबसूरती की सजा
हर पल भोगती हूँ

अद्वय

मैं अद्वय हूँ
पूंछने दो सवाल दर सवाल 
लम्हा लम्हा मुट्ठी में हो
यह माँ ही तो बतायेगी
तन से ही नहीं 
मन से भी सुन्दर बनायेगी
जीना सीखना है
दरिंदों से लड़ना है
चाटुकारों की मंडी में 
चन्दन सम रहना है
लोग क्या कहेंगे
इससे न डरना है
आत्मविश्वास से परिपूर्ण 
भविष्य संवारना है
कमज़ोर नींव नहीं 
मज़बूत बनना है
इसलिए पूंछने दो
सवाल दर सवाल
क्योंकि मैं अद्वय हूँ

अन्तर्द्वन्द

मस्तिष्क में कुछ प्रश्न झकझोरते हैं 
लिखे जाते हैं उनके उत्तर
उनसे उठे कुछ समाधान
हर समय दौड़ने से क्या होगा 
कितना भयानक है परिवर्तन का काल
कितना अन्तर्द्वन्द
समस्याओं का समाधान
लेकिन जब मन थकता है
तभी मौन होता है
जग की परम्परा है
मीठे फल खाने की
प्रकृति का सिद्धांत भिन्न है
सुख दुःख के रस साथ निभाने की
जीवन की आपाधापी 
मृग तृष्णा सी है मजबूर 
मन पंछी होता है व्याकुल 
क्या रातें सिंदूरी होंगी 
करुणा सिक्त सिन्धुरस में भी
अन्तर्मन हिलता है 
फिर मस्तिष्क में कुछ प्रश्न झकझोरते हैं 
लिखे जाते हैं उनके उत्तर
क्रम अनवरन चलता है
कुछ प्रश्न कुछ उत्तर