Friday, 4 November 2011

सच्चाई

सच्चाई में
मन के आईने में
अपना प्रतिबिंब निहारा 
चौंक गई वह 
आँखों के आगे
अँधेरा छा गया
बड़ी देर तक 
खुद को ढूंढती रही 
अपार धैर्य की स्वामिनी होकर भी खो गई 
मन में आशा की किरण लिये
प्रतीक्षारत निःशब्द खड़ी रही
शायद कोई मेरी मदद करे
मुझे बाहर निकाल ले
बंद करदे झूठ को मेरी जगह 
जहाँ अन्तःकरण की रोशनी में
मैंने अपना कुरूप, झुर्रीदार चेहरे का अंधकार देखा
परन्तु सच तो सच है
उसे स्वीकारना है
जब बचपन नहीं रहा तो जवानी भी न रहेगी 
बुढ़ापा है तो फिर से एक सुन्दर चेहरा मिलेगा
परिवर्तन प्रकृति का नियम है
चक्र तो अनवरत चलता है
यही सच्चाई है |

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