सच्चाई में
मन के आईने में
अपना प्रतिबिंब निहारा
चौंक गई वह
आँखों के आगे
अँधेरा छा गया
बड़ी देर तक
खुद को ढूंढती रही
अपार धैर्य की स्वामिनी होकर भी खो गई
मन में आशा की किरण लिये
प्रतीक्षारत निःशब्द खड़ी रही
शायद कोई मेरी मदद करे
मुझे बाहर निकाल ले
बंद करदे झूठ को मेरी जगह
जहाँ अन्तःकरण की रोशनी में
मैंने अपना कुरूप, झुर्रीदार चेहरे का अंधकार देखा
परन्तु सच तो सच है
उसे स्वीकारना है
जब बचपन नहीं रहा तो जवानी भी न रहेगी
बुढ़ापा है तो फिर से एक सुन्दर चेहरा मिलेगा
परिवर्तन प्रकृति का नियम है
चक्र तो अनवरत चलता है
यही सच्चाई है |
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