Wednesday 30 November 2011

अनाथ

कहते हैं दुनिया सुन्दर है माता है सृष्टि स्वरूप बनी 
इस रंग बदलती दुनिया में माँ का एक रूप है ऐसा भी
लालच के पर्दे ने देखो माँ से ममता ही छीन लिया
अवांछित बनकर जन्मी थी माँ ने ही मुझको फेंक दिया
जिंदा मुझको कुत्ते नोचें दुर्भाग्य मेरा अब शुरू हुआ
कितने ही चींटे लिपट गये हैं छेद किये देते मुझमें
फुटपाथों पर हूँ पड़ी हुई किस्मत से मत खा गई मैं
इतना मजबूत जिगर देखो मैं फिर भी बच ही जाती हूँ
दिल में पीड़ा के भाव छिपा ऊपर से मैं मुस्काती हूँ
जिसको माँ ने ही त्याग दिया, ईश्वर उसको क्या अपनाता
मरना तो यहाँ हुआ असं पर मरना कितना मुश्किल लगता
माँ ने अनाथ है बना दिया जीने का संबल ढूंढ रही
नश्तर है चुभाये अपनों ने बेगानों से शिकायत न रही|

Sunday 27 November 2011

सावन


सावन का महीना
नदी का यौवन 
गाँव की हद
बांस की जड़ 
मेंढकों की टर्र टर्र 
दिन का दूसरा पहर  
मेघ छंटा आकाश 
नभ पटल पर सूर्य देव
हल्का सा ताप
धूप में नहाई घास
क्लांत धरती की नि:स्वास      
वृक्षों का कम्पन 
सुकोमल पवन
चिकने मृदुल पल्लव 
पक्षियों का कलरव
तभी अचानक देखा
नौका पर मृगनयनी 
गहरी चितवन 
लज्जाशील नेत्र
अप्रतिम सौन्दर्य 
पुलकित मन
सलोना चंचल मुख
मनमोहक मुस्कान
घुंघराली केश राशि   
लम्बी परिपुष्ट
स्वच्छ सबल
अपलक देखता रहा
विचारों में खो गया 
स्तूपाकार बादलों का दल आया
साथ में तूफानी हवा
अतिवृष्टि पानी ही पानी
कहाँ गयी नौका कहाँ मृगनयनी 
नज़रें आज भी ढूँढ़ती हैं
यादों में आती है मृगनयनी 
और सावन का महीना भी| 

Saturday 26 November 2011

माँ

शक्ति और सामर्थ्य हीन 
हड्डियों का ढांचा मास गायब 
कंकाल झुर्रियों के सहारे 
आघातों की मार से बेमौत मरी हुई 
आँखें जा चुकी पर मोह की रोशनी बरकरार
कान बेकार फिर भी सुनते हैं बच्चों के पदचाप 
दुआ मांगते खुले हाथ 
नहीं जानती मांगने से क्या होगा
नियति पर किसी का जोर चला है क्या
कर्मफल का स्वाद तो सबको चखना पड़ेगा
जानकर भी अन्जान ममत्व से लाचार
माँ और कर भी क्या सकती है

Thursday 24 November 2011

पीड़ा

गहरे शान्त अन्तःकरण में
अव्यक्त क्रन्दन ध्वनित हो उठा
सृष्टिकर्ता के सिवा उसे कोई सुन नहीं सका
विचारों का भयंकर झंझावत 
अन्तर्द्वन्द से घबरा गया 
वेदना और अश्रुओं का सम्मिश्रण 
सीप के मोती सम नैनों में समा गया
तीर से घायल हिरणी सा कंठ अवरुद्ध हुआ
मैं कुछ भी बोल सकने में असमर्थ हुआ
माँ गर्भ का कलंक समझ रोती बिसूरती 
उदासीन है मन के भावों को नहीं देखती
संकेतों के नये पल्लव कंपाते हैं
खंजन पक्षी सी मेरी चमकती आँखें 
बिना अनुवाद ही सब कुछ बताती हैं
शब्दहीन एकान्त और मौन आकुलता 
प्रकृति के समान असीम अदभुत परिपूर्णता 
पुंजीभूत अप्रकाशित अपरिहार्य दुखः भार
किसी को नहीं मेरी अव्यक्त पीड़ा का आभास |



Sunday 13 November 2011

आशाएँ

राम और श्रवण से
मेरी तुलना होती
हो गई शादी 
बढ़ गई जिम्मेदारियाँ
आ गई कुछ नयी सवारियाँ
भाई छोटे से बड़े हो गये
क्षमता से अधिक आशा हुई 
सबकी अलग परिभाषा हुई
मज़बूत पैर डगमगाने लगे 
लोग मर्यादा की सीमा लांघने लगे
सबको होने लगी परेशानी 
शुरू होगी खींचातानी 
घर टुकड़े टुकड़े हो गया
मेरा हिस्सा पत्नी के नाम हो गया
सदा राम को आदर्श मन
पत्नी को सीता बनाया
अपने हिस्से का दर्द उसे ही पिलाया 
वो तो विषपान कर नीलकंठ बन गई 
मैं न तो राम बन सका न श्रवण 
परिवार की नज़र में बना 
सिर्फ पत्नी का गुलाम

Friday 11 November 2011

अनुगामिनी

मन बार बार गुनगुना रहा था
अपने ही द्वारा किए गए प्रश्नों से भाग रहा था
ज़िन्दगी क्या है, समस्या क्या है, सपने क्या हैं, 
सवाल बड़े सरल से हैं उत्तर आसान नहीं 
सुबह से रात चौकीदार की सीटी तक
अनुगामिनी बन ज़िम्मेदारी निभाती हूँ
फिर भी तानशाह गुर्राने से बाज नहीं आते 
लताड़ने और दहाड़ने का कोई मौका नहीं गंवाते 
ज़ख्म कुरेदने का तो चलन हो गया है
संवेदनहीन होकर इंसानियत को ही मारते हैं
सुबह की चाय की तरह इसकी तो आदत हो गई है
अपने वास्तविक स्वरुप को नहीं जी पा रही 
नकली मुस्कान का मुखौटा लगाये हूँ
अब तो मुझे लहरों से भी डर लगने लगा है
अपार धैर्य की स्वामिनी माँ दुर्गा 
मुझे अपनी तरह सर्वशक्तिमान बना दो
असीम श्रद्धा और भावुकता से परिपूर्ण 
जीत में विनम्र हार में गरिमामय 
अनुगामिनी, सहगामिनी, सहधर्मिणी | 

गठरी

सांवली सी औरत
गोद में बच्चा 
बड़ी सी गठरी 
विचारों में खोई 
कहाँ खुद जमे कहाँ गठरी
तभी चल दी रेलगाड़ी 
दौड़ते खेत, मकान
नदी, धूप, सडकें इन्सान
अचानक हुई हलचल
आ गया गन्तव्य स्थल
लगा धरती डोल गई 
भूचाल आ गया
यह उसका चेहरा दिखा गया 
सहसा उसे एक विचार कौधा 
नहीं जाना दुबारा नर्क में
रेलगाड़ी चल दी और वह भी
नै चुनौतियों के साथ जीवन जीने 
बिना टिकट थी पर शिकन नहीं
जहाँ तक रेल जायगी वह भी जायगी 
ऐसा अभी अभी उसने सोचा
शांत चित प्रसन्न मुख से 
बच्चे को आगोश में लिया 
खुद सिकुड़ी सिमटी गठरी बन गई |

Saturday 5 November 2011

रिश्ते

दुनियां की रीति है
बेटी पराई है अपनी नहीं हो सकती 
बहू बहू है बेटी नहीं बन सकती 
जमाई देवता है पूजा जाता है
बेटा कर्तव्यों का बोझ लेकर ही आता है
रिश्ते पहचानना है तो
गहरे पैठकर देखो
रिश्ते बनाने वाले खून से बड़ा 
कोई ज्ञानी नहीं होता 
समानता का पाठ पढ़ाता है
अमीर-गरीब, जाति-धर्म
बेटा-बेटी में भेद नहीं करता 
आदि से अंत तक सफर तय करता है
नहीं मानता दुनियाँ  की रीति को
मनमानी करता है
स्वाभिमानी है पर जानता है
जब शरीर ही अपना नहीं
रिश्ते कैसे अपने 
निःस्वार्थ सेवा करता है
अंतिम पल तक साथ निभाता है 
बिना बोले ही सब कुछ बोलता है
रिश्ते की कच्ची डोर वो ही संभालता है
दुनिया की रीति बदलने को आतुर
व्याकुल हो फड़फड़ाता है
रिश्तों की बेदी पर 
अपनी बलि देता है
जानता है खून खून है पानी नहीं है
रिश्ते से बड़ी जिन्दगानी नहीं है|


Friday 4 November 2011

एक दीप

मानव मन
प्रबल प्रमाण पर भी अविश्वास 
मिथ्या आशा को बाहों से चिपकाये 
भ्रान्ति के जाल में बंध व्याकुल होता है
जीवन में न जाने कितना वियोग 
जो विकसित गाँव भी श्मशान दिखाई देता है
अव्यक्त मर्म व्यथा प्रकट करते ही
करुण रस का दृश्य मानो विश्व व्यापी हो गया हो
तभी होता है अमावस की रात्रि में प्रकाश 
एक दीप का प्रकाश
जो मैंने उस रोज़ अंतर्मन में जलाया था
प्रबल प्रमाण पर भी अविश्वास 
परन्तु सत्य
एक दीप का प्रकाश |

सच्चाई

सच्चाई में
मन के आईने में
अपना प्रतिबिंब निहारा 
चौंक गई वह 
आँखों के आगे
अँधेरा छा गया
बड़ी देर तक 
खुद को ढूंढती रही 
अपार धैर्य की स्वामिनी होकर भी खो गई 
मन में आशा की किरण लिये
प्रतीक्षारत निःशब्द खड़ी रही
शायद कोई मेरी मदद करे
मुझे बाहर निकाल ले
बंद करदे झूठ को मेरी जगह 
जहाँ अन्तःकरण की रोशनी में
मैंने अपना कुरूप, झुर्रीदार चेहरे का अंधकार देखा
परन्तु सच तो सच है
उसे स्वीकारना है
जब बचपन नहीं रहा तो जवानी भी न रहेगी 
बुढ़ापा है तो फिर से एक सुन्दर चेहरा मिलेगा
परिवर्तन प्रकृति का नियम है
चक्र तो अनवरत चलता है
यही सच्चाई है |

Wednesday 2 November 2011

प्रतीक्षा

सूखे पत्ते सी देह खड़खड़ाते हुये
किस वक्त जाना पड़े पता नहीं
शून्य में निहारती हूँ
दिन कटते नहीं
रात तारे गिनकर बिताती हूँ
बूढ़ी माई हूँ
आँख की किरकिरी हूँ
नौकर से बद्तर ज़िन्दगी बिताती हूँ
भूखों मरती हूँ, पानी को तरसती हूँ
अँधेरी कोठरी में गर्मी से सड़ती हूँ 
फिर भी इन दिनों 
जाने क्या हुआ हमको 
बंदगी भूल बैठी 
तुम्हारी याद जो आती है
तन की सुधि  नहीं 
आतुर हूँ मिलने को 
जो अरमान इस देह से न पूरे हुए
उन सब को जीना है
इसीलिए जाने का कोई गम नहीं 
अगले जन्म आपसे जो मिलना है|