Thursday, 24 November 2011

पीड़ा

गहरे शान्त अन्तःकरण में
अव्यक्त क्रन्दन ध्वनित हो उठा
सृष्टिकर्ता के सिवा उसे कोई सुन नहीं सका
विचारों का भयंकर झंझावत 
अन्तर्द्वन्द से घबरा गया 
वेदना और अश्रुओं का सम्मिश्रण 
सीप के मोती सम नैनों में समा गया
तीर से घायल हिरणी सा कंठ अवरुद्ध हुआ
मैं कुछ भी बोल सकने में असमर्थ हुआ
माँ गर्भ का कलंक समझ रोती बिसूरती 
उदासीन है मन के भावों को नहीं देखती
संकेतों के नये पल्लव कंपाते हैं
खंजन पक्षी सी मेरी चमकती आँखें 
बिना अनुवाद ही सब कुछ बताती हैं
शब्दहीन एकान्त और मौन आकुलता 
प्रकृति के समान असीम अदभुत परिपूर्णता 
पुंजीभूत अप्रकाशित अपरिहार्य दुखः भार
किसी को नहीं मेरी अव्यक्त पीड़ा का आभास |



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