मन बार बार गुनगुना रहा था
अपने ही द्वारा किए गए प्रश्नों से भाग रहा था
ज़िन्दगी क्या है, समस्या क्या है, सपने क्या हैं,
सवाल बड़े सरल से हैं उत्तर आसान नहीं
सुबह से रात चौकीदार की सीटी तक
अनुगामिनी बन ज़िम्मेदारी निभाती हूँ
फिर भी तानशाह गुर्राने से बाज नहीं आते
लताड़ने और दहाड़ने का कोई मौका नहीं गंवाते
ज़ख्म कुरेदने का तो चलन हो गया है
संवेदनहीन होकर इंसानियत को ही मारते हैं
सुबह की चाय की तरह इसकी तो आदत हो गई है
अपने वास्तविक स्वरुप को नहीं जी पा रही
नकली मुस्कान का मुखौटा लगाये हूँ
अब तो मुझे लहरों से भी डर लगने लगा है
अपार धैर्य की स्वामिनी माँ दुर्गा
मुझे अपनी तरह सर्वशक्तिमान बना दो
असीम श्रद्धा और भावुकता से परिपूर्ण
जीत में विनम्र हार में गरिमामय
अनुगामिनी, सहगामिनी, सहधर्मिणी |
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