सूखे पत्ते सी देह खड़खड़ाते हुये
किस वक्त जाना पड़े पता नहीं
शून्य में निहारती हूँ
दिन कटते नहीं
रात तारे गिनकर बिताती हूँ
बूढ़ी माई हूँ
आँख की किरकिरी हूँ
नौकर से बद्तर ज़िन्दगी बिताती हूँ
भूखों मरती हूँ, पानी को तरसती हूँ
अँधेरी कोठरी में गर्मी से सड़ती हूँ
फिर भी इन दिनों
जाने क्या हुआ हमको
बंदगी भूल बैठी
तुम्हारी याद जो आती है
तन की सुधि नहीं
आतुर हूँ मिलने को
जो अरमान इस देह से न पूरे हुए
उन सब को जीना है
इसीलिए जाने का कोई गम नहीं
अगले जन्म आपसे जो मिलना है|
फिर भी इन दिनों
जाने क्या हुआ हमको
बंदगी भूल बैठी
तुम्हारी याद जो आती है
तन की सुधि नहीं
आतुर हूँ मिलने को
जो अरमान इस देह से न पूरे हुए
उन सब को जीना है
इसीलिए जाने का कोई गम नहीं
अगले जन्म आपसे जो मिलना है|
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