Sunday, 30 October 2011

अरमान

उम्र बढती रही
गंभीरता आती गई 
आदर्शों और मर्यादाओं  में बंधी मैं
हँसना ही भूल गई 
परिवार को ही  दुनियां  समझ 
गृहस्थी में ऐसी डूबी 
बचपन ही भूल गई 
अपनी खुशियाँ देकर
सबकी खुशियाँ खरीदती रही
खुली आँखों से 
सपने सजाती रही 
मुझे पता है
उम्र के अगले पड़ाव पर
मेरे लिये सिर्फ आलोचनाएं हैं
मुझे जिन्दा दफ़न करने की
सिर्फ योजनाएं हैं
मेरी दुनिया इतनी बोझिल न बने
जहाँ हकीकत से हर पल दो चार होना पड़े
मुझे न इच्छाएं दबाने की ज़रुरत है
न खुशियाँ कुर्बान करने की
अरमानों की चादर को खुद ही बुनना है
आत्मा को मार कर
किसी केलिए नहीं मरना है
उम्र की तरह अपने हौसले भी बढ़ाने हैं
जीना है जिन्दादिली से 
समाज को नई राह दिखाना है|

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