मन तो मेरा है पतंग सा क्षितिज को छूने चला था
पवन की गति से भी आगे, गगन में इतरा रहा था |
उड़ चला तो याद न थी कभी बंधन में बंधा था
बंधनों की छटपटाहट, चुभे शूलों को सहा था |
मैं तो भूला ही रहा मैं डोर कच्ची से बंधा था
कट गया तो फिर तड़पकर, असह्य पीड़ा को सहा था|
डोर से बंधकर ही तो मैं आसमां में उड़ सका था
जब गया मन शून्य में आज़ाद पंछी सा हंसा था |
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