Tuesday, 18 October 2011

झरोखा

हरिण शिशु के समान बंधनभीरु  
स्वप्निल संसार 
पूर्णिमा का चाँद 
श्रावण की वृष्टिधरा
मेघ गर्जते पर्वत 
मेढकों का टर्र टर्र कलरव 
शाख पर गाती चिड़िया 
गुंजन करते भौरे 
निस्तब्ध दोपहरी 
दूर कहीं चील की पुकार 
गहन रात्रि का अन्धकार 
श्रंगालों का चीत्कार 
ढालू हरा मैदान 
पानी भरे खेत 
रम्भाती गाय 
पूंछ उढाये बछड़े 
ऊँचा छप्पर 
संकरे रास्ते 
खूबसूरत दोस्त
सिकड़ी का खेल 
गुडिया की शादी 
डांटती पड़ोसन दादी 
गूंगी की मर्म वेदना 
खिन्नचित्त पढाई करना
रामलीला का मंचन 
नौटंकी का नर्तन 
त्योहारों की दस्तक 
दीपों की जगमग 
फुलझड़ियों की चमक
मिठाई की महक
होली के रंग 
मस्ती और भंग 
शादी की रात
सुखों की बरसात 
बाल लीला से ओतप्रोत 
जुड़वा बच्चों की मौत 
घाटे का व्यापार
नया कारोबार 
कल्पना प्रवण प्रवृत्ति 
ईश्वर का वरद हस्त 
दिया और बाती
पोती और नाती 
पिता समान भाई 
राखी बंधी कलाई 
रेशमी फ्राक में छोटी सी मैं 
सारी वो यादें 
अनकही बातें 
मगर अब तो
शहर याद हैं 
गाँव की गलियां भूली 
कितनों के नाम भूल चुकी   
शायद चेहरे भी भूल जायें
जीवित हैं या मृत पता नहीं
जीवन में फिर मुलाकात होगी या नहीं
मेरे अवचेतन मन पर
जो निशान अंकित हैं 
वो कभी मिट न पायेंगे 
वर्तमान में जीती हूँ 
कभी कभी अतीत का झरोखा 
खोल कर झांक लेती हूँ 
जिनमे ये लम्हे उम्रकैद हैं 



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