Thursday 15 December 2011

अम्मा

दुबली पतली छरहरी गोरी शायद आज के विज्ञापन जैसी
ऊँचा चौड़ा माथा उस पर बड़ी सी गोल बिंदी लगाती
जो बिल्कुल पूर्णिमा के चाँद की तरह ही चमकती रहती
इसीलिए चबूतरे पर शतरंज खेलते बाबूजी का मन
आपके बुलौवा से वापस आने का इंतजार करता
सान्झ होते होते बोल ही पड़ते तुम्हारी अम्मा नहीं आयीं
देखो क्या हुआ सब लोग चले गए
मैं जानती हूँ बढती उम्र का प्यार शायद ऐसा ही होता है
उम्र की तरह वह भी बढ जाता  है पता नहीं चलता
अचानक बाबूजी ने बिदाई ले ली चिरनिद्रा में सो गए
बस आपके व्यक्तित्व को नया आयाम मिला
शांत सरल निश्छल निर्मल व्यक्तित्व वाली
ईर्षा द्वेष लोभ मोह लोक परलोक सब से परे


एक दिन बोलते बोलते अचानक चुप हो गईं
बैकुंठ चौदस का दिन बैकुंठ सिधार गईं
अब सिर्फ मेरे अन्दर बह रहे लहू के हर कतरे में हो
शायद इसलिए कि मैं भी अब उस उम्र में प्रवेश कर रही हूँ
जहाँ से आपने नश्वर संसार से बिदाई ली सदा सदा के लिए .  

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