Saturday, 31 December 2011

स्वयं मुस्कराती हूँ

फर्क नहीं पड़ता अँधेरी रातों का
पति की डांट और सास के तानों का
देवर के उलाहनों और ननद के धमकाने का
पडोसी के व्यंग और दासी सी परिस्थिति का
चाटुकारों की बस्ती है मोल नहीं भावनाओं का
प्रयास मिथ्या है संतुष्ट कर पाने का
अब तो आदत हो गयी है डर नहीं लगता
जुर्म सहना भी जुर्म करने से कम नहीं होता
मैं गाय नहीं हूँ जो खूंटे से ही बंधी रहूँ
अपने ही बनाये मकडजाल में फंसी रहूँ
अब छुपाती नहीं दर्द भरे आंसू न शर्माती हूँ
सजती संवरती हूँ खुद को निहारती हूँ
उलझी लटों को रिश्तों सा सुलझाती हूँ
मनाती हूँ उत्सव और स्वयं मुस्कराती हूँ .
नए वर्ष की तरह नयी खुशियों का स्वागत करती हूँ .

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