Monday, 16 January 2012

बेटी



निष्ठुर काल नें प्रतिशोध लिया
मुझे बेटी का जन्म वरदान में दिया
बेटी का जन्म यानी अनेक प्रश्न चिन्ह
अस्तित्व होते हुए भी मन है खिन्न
परिवर्तनों के प्रतिबिम्ब वहन करती
ऊपर से शान्त पर अन्दर से तड़पती
हाथों से मुंह छुपाकर अश्रु बहाती हूँ
कुल की कीर्ति का परचम लहराती हूँ
समाज की नज़रों में गौशाला की गाय हूँ
कोटि कोटि दुखों को आकाश सा सहती हूँ  
स्वाभिमान की बलि देकर रहस्यों को ढकती हूँ
ममता और वात्सल्य के बदले अपनों से लुटती हूँ


Wednesday, 4 January 2012

पीड़ा

परम पिता मेरी भी विनती सुन लेते 
शायद इस पीड़ा को आप समझ जाते 
लज्जा क्षमा धैर्य ये गहने न देते 
बदले में इसके दो सींगे दे देते 
जंगल में रहती रक्षा तो करती
इन्सान की शक्ल में हैवान से बचती 
जीना नहीं है अब मुझे दो मुक्ति 
विवाह की पीड़ा से वह भी है सस्ती 

प्रदर्शनी

आंसू पलकों पर मचलते रहे
संशय के बादल उसे पीते रहे
विडम्बनाओं के दौर अनवरत चलते रहे
हम प्रदर्शनी बने अंतर्द्वंद से साक्षात्कार करते रहे
हम पढ़े गए ...    ..जैसे हों पत्रिका
हम जांचे गए .      जैसे परीक्षा की पुस्तिका
हम परखे गए      .जैसे कोई गहना
हम तपाये गए .....जैसे कसौटी पर सोना
हम सुने गए ........जैसे बेसुरी तान
हम सहे गए ........जैसे युद्ध का ऐलान
हम भोगे गए ......जैसे अमर बेल
हम देखे गए .......जैसे नौटंकी का खेल
हमउड़ाए गए   ...जैसे बड़ी सी मक्खी
हम रुलाये गए ...जैसे पिंजरे में पक्षी
हम कोसे गए .....जैसे पाप की गठरी
हम अपनाये गए .जैसे बंजर प्रथ्वी



पूर्णता की प्राप्ति

बाहर तूफान बड़े वेग से चल रहा था
परन्तु मेरे अन्दर हवा का प्रवेश तक न था
कालिमा के कारागार में बंद हुई सासों से मुक्ति का अहसास
ईश्वरीय शक्ति को भूतल पर उतारने का साहसिक प्रयास
नियति ने तपती हुई वसुधा को क्षितिज से मिला दिया
गर्म वाक्य के धुंए से घुटकर मरने से अच्छा धधक कर जला दिया
पवित्र अग्नि में शरीर पञ्च तत्व में विलीन हो रहा था  
परम नीरवता में पूर्णता की प्राप्ति का आनंद मिल रहा था .



शब्द

भावनाओं की भाप फैलती है अंतर्मन में
तो शब्द उड़ते हैं बादल बन आसमाँ के आँचल में
शब्द कैद में नहीं रहते न जीते हैं पिंजरे में
करते ही रहते हैं अभिव्यक्ति की तैयारी अंतर्मन में
कभी कभी बेचैन करते हैं मन को सोने नहीं देते रात सारी
चुभाते हैं नश्तर ह्रदय में पड़ते हैं खुशियों पर बहुत भारी
पर अच्छे अच्छों को नचाते हैं बन कर कुशल मदारी
फैलाते हैं खुशबु वातावरण में देते हैं उल्लास की पिटारी
शब्द जो मिटटी को बनाते सोना और सोने को मिटटी
करते हैं वर्षा अमृत रूपी जल की चलाते हैं सम्पूर्ण सृष्टि |



सिंदूरी सूरज

खिला हुआ सिंदूरी सूरज
उसे नहीं है पर्वत और समुद्र की गरज
अपनी ही मस्ती मैं सदा रहता है चूर
पर्वत और समुद्र की आड़ लेकर जाता है दूर
मिलकर प्रियतम संग रात बिताता है
प्रातः तरोताजा होकर ही आता है .





Sunday, 1 January 2012

तड़पता है

अगड़ित विक्षुब्ध लहरें
जो कभी भी न ठहरें
निष्फल सीपियों की छटपटाहट 
विक्षिप्त समुद्र की घरघराहट 
सिवार का कवच बदहवास
फेन में भी बर्फ का अहसास
छटपटाते मछलियों के झुण्ड
किनारे पर नारियल के कुञ्ज
अमूल्य रत्नों का भंडार छुपाये
तड़पता है अपना दर्द किसे बताये 

अग्निपरीक्षा

जब वक्ता की मानसिक स्थिति गड़बड़ाती
तभी सदियों पुरानी अधूरी कहानी कही जाती
एक था राजा एक थी रानी
दोनों मर गए खत्म कहानी
राजा रानी तो संकेत मात्र हैं
असली कहानी को जीता हर पात्र है
अपनी और अपनों की कहानी में दम है
जिंदगी जीना क्या किसी अग्निपरीक्षा से कम है