Wednesday, 4 January 2012

प्रदर्शनी

आंसू पलकों पर मचलते रहे
संशय के बादल उसे पीते रहे
विडम्बनाओं के दौर अनवरत चलते रहे
हम प्रदर्शनी बने अंतर्द्वंद से साक्षात्कार करते रहे
हम पढ़े गए ...    ..जैसे हों पत्रिका
हम जांचे गए .      जैसे परीक्षा की पुस्तिका
हम परखे गए      .जैसे कोई गहना
हम तपाये गए .....जैसे कसौटी पर सोना
हम सुने गए ........जैसे बेसुरी तान
हम सहे गए ........जैसे युद्ध का ऐलान
हम भोगे गए ......जैसे अमर बेल
हम देखे गए .......जैसे नौटंकी का खेल
हमउड़ाए गए   ...जैसे बड़ी सी मक्खी
हम रुलाये गए ...जैसे पिंजरे में पक्षी
हम कोसे गए .....जैसे पाप की गठरी
हम अपनाये गए .जैसे बंजर प्रथ्वी



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