Sunday, 30 October 2011

अरमान

उम्र बढती रही
गंभीरता आती गई 
आदर्शों और मर्यादाओं  में बंधी मैं
हँसना ही भूल गई 
परिवार को ही  दुनियां  समझ 
गृहस्थी में ऐसी डूबी 
बचपन ही भूल गई 
अपनी खुशियाँ देकर
सबकी खुशियाँ खरीदती रही
खुली आँखों से 
सपने सजाती रही 
मुझे पता है
उम्र के अगले पड़ाव पर
मेरे लिये सिर्फ आलोचनाएं हैं
मुझे जिन्दा दफ़न करने की
सिर्फ योजनाएं हैं
मेरी दुनिया इतनी बोझिल न बने
जहाँ हकीकत से हर पल दो चार होना पड़े
मुझे न इच्छाएं दबाने की ज़रुरत है
न खुशियाँ कुर्बान करने की
अरमानों की चादर को खुद ही बुनना है
आत्मा को मार कर
किसी केलिए नहीं मरना है
उम्र की तरह अपने हौसले भी बढ़ाने हैं
जीना है जिन्दादिली से 
समाज को नई राह दिखाना है|

Saturday, 29 October 2011

हंसी

चुटकुले सुनते हैं
उनपर हँसते हैं
यहाँ त्रासदी भी हंसी है 
और हंसी भी त्रासदी 
मानवीय भावनाओं की
किस्में अधिक हैं 
स्पन्दन करता विषय कम 
भावनात्मक सूखे को आमंत्रित किया 
बचपन दहशत की शाम में जिया 
बड़ा खौफ झेल चुकी 
छोटे डर बौने पड़े 
बिना डर जीने की 
कला खूब सीख गयी 
बाढ़, तूफ़ान, अकाल, बम 
किसी का पता नहीं 
कैसे जीते हैं कैसे मरते हैं
मैं ही नहीं मेरे जैसे कितने ही हैं
जिनकी आँखों में आंसू का अकाल पड़ा 
जीवन एक राह नहीं 
यह तो दोराहा है
यहाँ कोई छांव नहीं 
चिलचिलाती धूप है 
ऊपर से जीते हैं
अन्दर से मरते हैं 
अब तो चुटकुले देख कर भी हँसते हैं 
हँसते हँसते हर गम सहते हैं
सहते सहते खुद चुटकुले बन गये
लोग हँसते हैं
उन्हें देखकर हम भी हँसते हैं|

मन

मन तो मेरा है पतंग सा क्षितिज को छूने चला था 
पवन की गति से भी आगे, गगन में इतरा रहा था |
उड़ चला तो याद न थी कभी बंधन में बंधा था
बंधनों की छटपटाहट, चुभे शूलों को सहा था |
मैं तो भूला ही रहा मैं डोर कच्ची से बंधा था
कट गया तो फिर तड़पकर, असह्य पीड़ा को सहा था|
डोर से बंधकर ही तो मैं आसमां में उड़ सका था
जब गया मन शून्य में आज़ाद पंछी सा हंसा था |  

Sunday, 23 October 2011

मन

अम्मां की गुड़िया
पापा की बिटिया हूँ
दादी की परी
दादू की दुलारी हूँ
निपट अनाड़ी
जादू की पिटारी हूँ
बचपन बुलाता है
दौड़ी चली जाती हूँ
मन करता है
आम के बागों में 
कोयल सी कूकूँ
बादल की छांव में 
मोर बन नाचूँ
सरसों के खेतों में
बसंत बहार बनूँ
प्रेम के समुद्र से  
बादल बनाऊँ
संपूर्ण पृथ्वी पर 
नेह बरसाऊँ 


विजय श्री

लोग कहते हैं 
मैं विजय श्री हूँ
उन्हें लगता है 
मेरी दुनियां  चमन सी है
पर कोई मेरे ह्रदय में झांककर देखे
मेरी मुस्काने की अदा में
एक चुभन सी है
खुश होकर जी रही
यह मेरा साहस है
वर्ना मर मर कर जीना 
आसान नहीं है
खोखली हंसी का लबादा ओढ़े 
परिवार का ताना बाना बुनती हूँ
भाग्य को कोसने की ज़रुरत नहीं 
जो चाहती हूँ वो मेरे पास है
अचानक अपने आसपास 
झांककर देखा
शराब में धुत
बेसुध पड़ा आदमी
कंकाल बनी औरत 
बिलखते बच्चे 
खाली डिब्बे 
चूल्हे पर उबलते आलू
पास में बजबजाती नाली
लोटते कुत्ते और सुअर
तो सचमुच ऐसा लगा 
लोग सच ही कहते हैं
मैं ही विजय श्री हूँ
भाग्य श्री भी मैं ही हूँ

Tuesday, 18 October 2011

क्षितिज

क्षितिज अनन्त है 
अखण्ड और महान है 
वह तो आसमान है
बादलों के पार है
धरती मिलन चाहे 
पर्वत प्रयास रत 
सागर मचल रहा 
पक्षी उड़ान भरें 
कोई न छू पाया 
शून्य से भी पार क्षितिज 
आत्मसम्मान क्षितिज 
मेरा स्वाभिमान क्षितिज

झरोखा

हरिण शिशु के समान बंधनभीरु  
स्वप्निल संसार 
पूर्णिमा का चाँद 
श्रावण की वृष्टिधरा
मेघ गर्जते पर्वत 
मेढकों का टर्र टर्र कलरव 
शाख पर गाती चिड़िया 
गुंजन करते भौरे 
निस्तब्ध दोपहरी 
दूर कहीं चील की पुकार 
गहन रात्रि का अन्धकार 
श्रंगालों का चीत्कार 
ढालू हरा मैदान 
पानी भरे खेत 
रम्भाती गाय 
पूंछ उढाये बछड़े 
ऊँचा छप्पर 
संकरे रास्ते 
खूबसूरत दोस्त
सिकड़ी का खेल 
गुडिया की शादी 
डांटती पड़ोसन दादी 
गूंगी की मर्म वेदना 
खिन्नचित्त पढाई करना
रामलीला का मंचन 
नौटंकी का नर्तन 
त्योहारों की दस्तक 
दीपों की जगमग 
फुलझड़ियों की चमक
मिठाई की महक
होली के रंग 
मस्ती और भंग 
शादी की रात
सुखों की बरसात 
बाल लीला से ओतप्रोत 
जुड़वा बच्चों की मौत 
घाटे का व्यापार
नया कारोबार 
कल्पना प्रवण प्रवृत्ति 
ईश्वर का वरद हस्त 
दिया और बाती
पोती और नाती 
पिता समान भाई 
राखी बंधी कलाई 
रेशमी फ्राक में छोटी सी मैं 
सारी वो यादें 
अनकही बातें 
मगर अब तो
शहर याद हैं 
गाँव की गलियां भूली 
कितनों के नाम भूल चुकी   
शायद चेहरे भी भूल जायें
जीवित हैं या मृत पता नहीं
जीवन में फिर मुलाकात होगी या नहीं
मेरे अवचेतन मन पर
जो निशान अंकित हैं 
वो कभी मिट न पायेंगे 
वर्तमान में जीती हूँ 
कभी कभी अतीत का झरोखा 
खोल कर झांक लेती हूँ 
जिनमे ये लम्हे उम्रकैद हैं 



Monday, 17 October 2011

आत्मा

शांत आत्मा बन 
मैंने सब देखा 
भले बुरे अनुभव किये 
गिरने की पीड़ा सही
ऊँचा उढने की ख़ुशी 
जो और जितना मिला उसे स्वीकारा
नहीं मिला तो संतोष 
हर घटना से पाठ पढ़ा 
जीवन की धूप में खुद को पकाया
पतझड़ में मधुमास ढूंढा
संसय में विश्वास 
अचानक चाँद ढक गया
वायु वेग से बहने लगी 
मेघ के पीछे मेघ दौड़ने लगे
अंधकार पुंजीभूत हो उठा 
पृथ्वी कांप उठी 
बिजली आकाश को चीरने लगी
तभी हुआ निर्वाण का आभास 
परमात्मा का प्रकाश 
अंतिम स्वास