उम्र बढती रही
गंभीरता आती गई
आदर्शों और मर्यादाओं में बंधी मैं
हँसना ही भूल गई
परिवार को ही दुनियां समझ
गृहस्थी में ऐसी डूबी
बचपन ही भूल गई
अपनी खुशियाँ देकर
सबकी खुशियाँ खरीदती रही
खुली आँखों से
सपने सजाती रही
मुझे पता है
उम्र के अगले पड़ाव पर
मेरे लिये सिर्फ आलोचनाएं हैं
मुझे जिन्दा दफ़न करने की
सिर्फ योजनाएं हैं
मेरी दुनिया इतनी बोझिल न बने
जहाँ हकीकत से हर पल दो चार होना पड़े
मुझे न इच्छाएं दबाने की ज़रुरत है
न खुशियाँ कुर्बान करने की
अरमानों की चादर को खुद ही बुनना है
आत्मा को मार कर
किसी केलिए नहीं मरना है
उम्र की तरह अपने हौसले भी बढ़ाने हैं
जीना है जिन्दादिली से
समाज को नई राह दिखाना है|