Saturday, 31 December 2011

स्वयं मुस्कराती हूँ

फर्क नहीं पड़ता अँधेरी रातों का
पति की डांट और सास के तानों का
देवर के उलाहनों और ननद के धमकाने का
पडोसी के व्यंग और दासी सी परिस्थिति का
चाटुकारों की बस्ती है मोल नहीं भावनाओं का
प्रयास मिथ्या है संतुष्ट कर पाने का
अब तो आदत हो गयी है डर नहीं लगता
जुर्म सहना भी जुर्म करने से कम नहीं होता
मैं गाय नहीं हूँ जो खूंटे से ही बंधी रहूँ
अपने ही बनाये मकडजाल में फंसी रहूँ
अब छुपाती नहीं दर्द भरे आंसू न शर्माती हूँ
सजती संवरती हूँ खुद को निहारती हूँ
उलझी लटों को रिश्तों सा सुलझाती हूँ
मनाती हूँ उत्सव और स्वयं मुस्कराती हूँ .
नए वर्ष की तरह नयी खुशियों का स्वागत करती हूँ .

धर्मपत्नी

नख शिख सौंदर्य से अलंकृत कल्पना
आँगन में पद चिन्हों से बनी अल्पना
महावर लगे पैरों में पाजेब की झंकार
सम्पूर्ण व्यक्तित्व पर जादू चलाने को तैयार
रात देती है संबल और करती है कर्तव्य
हर युग मैं आई हूँ जीतने तुम्हारा पुरुषत्व
सप्तपदी के वचनों को बखूबी निभाती हूँ
ह्रदय जीत कर ही धर्मपत्नी कहलाती हूँ .

Tuesday, 27 December 2011

प्रकाश

अचानक चाँद ढक गया
वायु बड़े वेग से बहने लगी
बादलों के दल भाग दौड़ करने लगे
अन्धकार पुंजीभूत हो उठा
बिजली आकाश को चीरने लगी
सम्पूर्ण प्रथ्वी कांप उठी
संसार भयक्रांत हो गया
तभी चेतनाओं ने करवट बदली
शब्द अमरत्व की राह पर चल पड़े
जन्म सार्थक हुआ हम समझ गए
ईश्वर की लीला भी अपरम्पार है
कथाओं में आवागमन की महिमा का सार है
सेज नहीं सुख की जीवन संग्राम है
दुःख का अंतर्मन से ही सरोकार है
सिसकती मानवता में संभावनाओं का सागर है
प्रफुल्लित मन में अब सिर्फ प्रकाश की गागर है .

Saturday, 24 December 2011

प्रकाश

अध्यात्म और योग मनीषी की तरह
भीतर की दुनिया में प्रवेश किया
लोक परलोक से नाता तोड़ लिया
अनुभूति पूर्ण एकक्षण का अहसास
न रहा किसी पीड़ा का आभास
अन्तरंग के प्रकाश में नहाती
शांति की दुनिया में गोते खाती
ब्रम्ह शक्ति का स्पर्श
पूर्ण रूप से समाहित होता द्रश्य
प्रकाश ही प्रकाश
तभी आ गयी स्वास
माया का आभास \

आभास

तस्वीर धुंधली है
प्रेम से चित्त्रित है
लाखों बार जन्मे
प्रेम न छोड़ा
फासला बड़ा है
प्यार सच्चा है
संकल्प किया है
निभाना न छोड़ा
इस जन्म न मिले
कोई बात नहीं
हवा की तरह
वास तुम्हारा है
दिलो दिमाग में
आभास तुम्हारा है 

Friday, 23 December 2011

मेरा जन्म

मेरा जन्म
चुनौतियों का जन्म
चुनौतियाँ भी डर गईं
मैंने सोचा मुझे देख कर भाग गईं
मेरी सोच गलत हो गई
चुनौतियाँ असीमित हो गईं
मुझे जीने का मार्ग दिखा गईं
विचारों को नई दिशा दे गईं
चुभन की जगह शांति तलाशनी है
चुनौतियों को मधुर गीत बनाना है
पर्वत मालाओं की तरह ठहरनाहै
वृक्ष की तरह झुक जाना है
अस्तित्व बचाना है तो
स्वीकार करना है
अंधकार को भी
वर्ष के अंत की तरह
हर्षोल्लास से स्वागत करना है
जन्म दिन और नए वर्ष का .

माँ

सुबह की शुरुआत है
टूटी हुई खाट है
जूठे बर्तन धोती हूँ
सब कुछ सहती हूँ
दूसरों को खिलाती हूँ
स्वयं अत्रप्त हूँ
थककर चूर हूँ
बिस्तर निहारती हूँ
शराबी पति से
आँखें चुराती हूँ
फिर भी एक आस है
जीवित होने का अहसास
मैं भी अब माँ हूँ
मुझे लेनी है साँस
बुझती हुई प्यास
अपने हिस्से की भूख
सूरज की नर्म धूप
चंदा की छाया
थोड़ी सी माया
सितारों की चमक
पूरी दुनिया का सुख

Wednesday, 21 December 2011

प्रफुल्लित मन

तरंगित संगीत
उमड़ती लहरें
लहरों का गर्जन
बल खाती पवन
नर्म सुनहरी धुप
सजे संवरे उंट
पीठ पर पर्यटक
दुकान बने युवक
सीप और शंख
मछलियों के झुण्ड
आनंदित करता स्नान
बच्चों की मनमोहक मुस्कान
प्रफुल्लित मन समुद्र दर्शन

बीते हुए पल

चारो धाम घूमने
पहली बार निकले
लोग मिले और बिछड़े
अनगिनत भाव उमड़े
ऊपर बर्फ उज्वल
अन्दर गर्म जल
कहीं राह पतली
कहीं पर्वत कहीं खाई
प्रक्रति का खेल
कहीं पानी कहीं तेल
चारो तरफ समुद्र
पानी का दरिद्र
नारियल पानी
जनता दीवानी
जहाँ खिली धूप
बदली घिर आई
आनन् फानन में
धरती भिगोई
फूलों की क्यारियां
रस्सी में सूखती मछलियाँ
जो पल बीते
यादों में आये
बिछड़े जो मित्र
फिर न मिल पाए
कभी गमगीन हुए
कभी हर्षाये
यात्रा में हमने
पल जो बिताये .

Tuesday, 20 December 2011

जी चाहता है

बचपन में लौटने का
फूलों संग खिलने का
अठखेली करने का
छुट्टी मनाने का
चिड़िया उड़ाने का
मासूमियत ओढ़ने का
धरती भिगोने का
चाँद पर जाने का
तारों से खेलने का
परियों संग उड़ने का
कहानियां सुनने का
भरोसा करने का
अम्मा से मिलाने का
जी चाहता है .

Sunday, 18 December 2011

एक पल का वक्त

म्रत्यु कहें या काल
स्वागत है तुम्हारा
अधिक इंतजार अच्छा नहीं
अब तो आ जाओ
सूत्रधार हो परमात्मा के
अधीर हूँ मिलनेमिलने को
तन और मन दोनों से
जिस राह पर ले चलो
उंगली थाम चलना है
जबरन न ले जाना
वचन देती हूँ
स्वयं चलूंगी
बस एक प्रार्थना है
वक्त देना थोडा सा
उनसे मिलने का
थामा था दामन जिनका
उन्हें निहारने का
बिदाई लेने का
सांसारिक लिप्सा से मुक्ति का
सिर्फ एक पल का वक्त .

मुक्ति दो

जीवन संग्राम में लड़ते लड़ते
चुनौतियों को सहते सहते
संसार रूपी कुरुछेत्र में
थक गया हूँ
हर गया हूँ
टूट गया हूँ
छत विछत हूँ
लहू लुहान हूँ
तन और मन दोनों से
ढूंढ़ रहा हूँ आपको
कहाँ हो तारणहार
गीता के कृष्ण
मुझे ज्ञान दो
शक्ति दो
मुक्ति दो .

पराया देश

बचपन का सपना सच हो गया
पराये देश जाने का मौका मिल गया
पराया देश जब सांसो में बसने लगा
सांसो को पंख मिल गए
हम उड़ने लगे मन आह्लादित हो गया
स्वछंदता का अहसास खुसी दे गया
पराया देश जब सांसो में बसने लगा
तो सोचा खूब खाओ हरे साग के भाव मांस
इतना सस्ता कहाँ मिलेगा
स्वाद के साथ मौज मस्ती और भोग विलास
पराया देश जब हाड़ मांस में समाया
सुख सुविधाओं ने गुलाम बनाया
तो परेशान हूँ विक्षिप्त हूँ
अचानक अपना वतन याद आने लगा
भूले हुए चेहरों से भी प्यार हो गया
बहुत याद आये माँ की लोरी और पकवान
देश प्रेम में लिखे गए पिता के व्याख्यान
डांटती अध्यापिका और हल्दी घाटीवाला प्रश्न
पटरे वाली कमीज पहने साईकिल का जश्न
दूर के ढोल बड़े सुहाने वाले मुहावरे का सच होता मंचन .

Saturday, 17 December 2011

जोड़ियाँ

लोग कहते है
जोड़ियाँ ऊपर बनती है
जन्म जन्मान्तर के संयोग से बनती है
मुझे भी यही लगता था
पर अब तो ऐसा लगता है
जोड़ियाँ जोड़ तोड़ से बनती हैं
जन्म पत्र  मिलानेवाले पंडित से बनती हैं
दहेज़ की सौदेबाजी से बनती हैं
परम्पराओं की आड़ में बनती हैं
लड़का तो घी का लड्डू है
लायक हो या नालायक
बोली लगती है खरीदार तो मिल ही जायेंगे
जो अधिकतम मूल्य चुकाए ले जाये
कीमत लगादी पर ससुराल का न  हो जाय
चिंताग्रस्त हैं मुख मलीन है
जोड़ तोड़ जारी है
डर है पत्नी से साठ गांठ न हो जाये
दुकानदारी चलाने के लिए
दरार डालना जरुरी है
सात जन्म की कौन कहे
इस जन्म का पता नहीं
जोड़ियाँ कब बने कब टूटे
सब नीचे वाले के हाथ है .

Friday, 16 December 2011

महूर्त

शुभ मुहूर्त का इंतजार
सज गए बाज़ार
झिलमिलाता कारोबार
स्वप्निल संसार
दूल्हा दुल्हन के साथ
रिश्तेदारों का सामान
बढे कपड़े आभूषण  के दाम
फल मीठा छु रहे आसमान
दर्जी से लेकर हलवाई
ढोल बजा पंडित शहनाई
हर जगह आपाधापी
विवाह स्थल की मारामारी
जगह एक दुल्हन चार
ऐसा है शुभ महूर्त का कारोबार
बिना नाम पढ़े ही घुस गए
पढ़े लिखे गंवार बन गए
दूल्हा दुल्हन देखने की जरुरत नहीं
सिर्फ भोजन दिखता है घडी दिखती है
अगली सुबह की भागमभाग दिखती है
आर्थिक संकट दोनों पक्छों को आया है
इसलिए बिना शगुन आशीर्वाद अधुरा है
आमंत्रण जेब पर भारी है
रिश्ते निभाने की अपनी लाचारी है .

Thursday, 15 December 2011

अम्मा

दुबली पतली छरहरी गोरी शायद आज के विज्ञापन जैसी
ऊँचा चौड़ा माथा उस पर बड़ी सी गोल बिंदी लगाती
जो बिल्कुल पूर्णिमा के चाँद की तरह ही चमकती रहती
इसीलिए चबूतरे पर शतरंज खेलते बाबूजी का मन
आपके बुलौवा से वापस आने का इंतजार करता
सान्झ होते होते बोल ही पड़ते तुम्हारी अम्मा नहीं आयीं
देखो क्या हुआ सब लोग चले गए
मैं जानती हूँ बढती उम्र का प्यार शायद ऐसा ही होता है
उम्र की तरह वह भी बढ जाता  है पता नहीं चलता
अचानक बाबूजी ने बिदाई ले ली चिरनिद्रा में सो गए
बस आपके व्यक्तित्व को नया आयाम मिला
शांत सरल निश्छल निर्मल व्यक्तित्व वाली
ईर्षा द्वेष लोभ मोह लोक परलोक सब से परे


एक दिन बोलते बोलते अचानक चुप हो गईं
बैकुंठ चौदस का दिन बैकुंठ सिधार गईं
अब सिर्फ मेरे अन्दर बह रहे लहू के हर कतरे में हो
शायद इसलिए कि मैं भी अब उस उम्र में प्रवेश कर रही हूँ
जहाँ से आपने नश्वर संसार से बिदाई ली सदा सदा के लिए .  

Thursday, 8 December 2011

अस्तित्व

समाज सुधारक बने
गलती निकालने का कोई मौका न गंवाते 
शिकायत करना तो खून में रच बस गया 
प्रतिक्रिया देना अहम का हिस्सा बन गया
अपने मुंह मियां मिट्ठू बनने की आदत जो हो गयी
इसीलिए कोई अच्छा दिखता ही नहीं
नहीं जानते तलाश किसकी है 
इन्सान कोई मशीन तो नहीं है
जो कलपुर्जों की तरह बदल दो
समझदारी पर संदेह करते 
जहाँ पहुंचना था वहां न पहुँचते 
बुद्ध महावीर बन पहले खुद में झांको 
उबड़ खाबड़ रास्ते घाटियों पहाड़ियों के पार 
अस्तित्व की झलक है फिर सारा संसार सुनहरा दिखेगा |

Tuesday, 6 December 2011

स्त्री

प्रेम का नाम न लो
वह तो एक पीड़ा थी
ह्रदय को सम्हालो
सुख के स्वप्न विलीन हुए                
संदेह का इंद्रजाल ही सच है
कष्ट सहन करने के लिए प्रस्तुत हो जा
प्रतारणा में बड़ा मोह होता है
छोड़ने का मन ही नहीं करता है
मन की उलझन कयूँ
बन्धनों से बाहर आओ
तोड़ दो व्यूह
कुचल दो पैरों से
भाग्य के लेखे को
धूल में लोटने दो
अमंगल का अभिशाप
आत्मविश्वास से परिपूर्ण बनो
स्त्री बनना सहज नहीं है
     

एक बंजारन

गाँव के किनारे बंजारों के डेरे 
जवान और सलोनी लड़की
शराब बनाती सस्ती बेचती 
नौजवानों का शिकार करती
रूप जाल में बंधक बनाती 
आँख मूँद थकान उतारती
हवा धुप उड़ाती चीखती चिल्लाती 
पूरब पश्चिम में भेद नहीं करती
समय रफ़्तार से बढ़ता गया
दिन महीने में बदले महीने साल में
आनेवाले आते जानेवाले चले जाते 
छल का बहिरंग बड़ा सुन्दर होता है
अब वह अकेली नहीं उसके जैसी चार हैं 
उन सबका अपना अलग संसार है |

Sunday, 4 December 2011

फुर्सत के क्षण

कमरे के कोने में रखी हुई आराम कुर्सी पर झूलते हुए 
फुर्सत के क्षण अब बड़े अच्छे लगने लगे हैं
मधुर संगीत, गजलें दिल के तार झंकृत करने लगे
फूलों का रंग अधिक चटकीला हो आकर्षित करने लगा 
उनींदे बच्चों के प्यारे चेहरे अब मासूम लगने लगे
सुन्दर सुगढ़ सजे संवरे चेहरे सम्मोहित करने लगे
प्रसन्न मन से मित्रों और सम्बन्धियों संग त्यौहार मनाने लगे
ज़िन्दगी जीने का हर मौका तलाशने की कोशिश करने लगे
कुदरत कोहरे की चादर ओढ़े प्यार से रिश्तों को लपेटने लगी
लताओं वृक्षों और चट्टानों से छाया और सहानुभूति मिलने लगी
फुर्सत के क्षण अब बड़े अच्छे लगने लगे |



Thursday, 1 December 2011

मित्र

वह सत्य बयां कर रहा था या प्रशंशा 
पता नहीं चला जानना भी मुश्किल था
मैं उसकी मित्र थी शायद इसीलिये
मुझे दुखी नहीं देख पा रहा था
बात बदलने की कोशिश में पकड़ा गया
मुझे बचाकर खुद दांव पर लग गया बेचारा
मित्रता का फ़र्ज़ निभाने में खुद शहीद हो गया
वह कभी नहीं जान पायेगा मेरा गम 
सच्चा मित्र खोकर कोई चैन से जीता हैं क्या
उसके निराश्रित परिवार को देखकर 
छटपटाता है मन घुटता है दम
जीवन भर का दर्द मुझे मित्र बनकर दे गया
मैं उसकी कुर्बानी को व्यर्थ नहीं गवाऊँगी 
अब कभी किसी को मित्र नहीं बनाऊँगी|